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(३) अज्ञानदोष - अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना; (४) आमरणान्तदोष - मृत्यु के समय तक भी जीवन में किये गये हिंसादि पाप
कार्यों का प्रायश्चित नहीं करना।
शास्त्रों में आर्तध्यान को नरकगति एवं रौद्रध्यान को तिर्यंचगति का कारण बतलाया है।
धर्मध्यान जैनदर्शन में धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को प्रशस्त ध्यान की श्रेणी में रखा गया है। जैनदर्शन के अनुसार साधना की दृष्टि से दोनों प्रशस्त ध्यानों को ही प्रश्रय दिया गया है। आगमों में इनके व्यापक वर्णन उपलब्ध होते हैं। स्थानांगसूत्र आदि में धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान के भेद एवं लक्षण के साथ इनके आलम्बनों एवं इनकी अनुप्रेक्षाओं का भी वर्णन किया गया है।80
धर्मध्यान का एक नाम विचयध्यान भी है। चेतना की शुभ परिणति : धर्मध्यान कहलाती है। इसके चार भेद किये गये हैं जो इसके स्वरूप को भी स्पष्ट
करते हैं।
धर्मध्यान के भेद
(७) आज्ञाविचय - वीतराग परमात्मा की आज्ञा एवं उपदेश के अनुरूप चिन्तन
करना;
...(२) अपायविचय - रागद्वेष आदि दुःख के कारणों से बचने का चिन्तन करना; (३) विपाकविचय- कर्मों के विपाक में एकाग्रता विपाक विचय ध्यान है ।
यह एकाग्रता समभावपूर्वक होती है, अतः पूर्वकृत कर्मों के उदय में समभाव परिणति रखना विपाकविचय रूप धर्मध्यान
(४) संस्थानविचय- लोक के स्वरूप स्वभाव तथा उसमें होने वाले पदार्थों की
वस्तुस्थिति का यथार्थ चिन्तन संस्थानविचय ध्यान है;
० स्थानांग ४/१/६५ से ६८ ।
- (लाडनूं, पृष्ठ ६०२) ।
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