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ध्याता हो सकते हैं। दुःख के प्रति द्वेष एवं सुख के प्रति अनुराग रूप ध्यान आर्तध्यान कहलाता है। संक्षेप में चेतना की दुःखद विषयों में एकाग्र परिणति आर्तध्यान है। इसके निम्न चार प्रकार हैं
(9) इष्टवियोगजन्य - प्रिय व्यक्ति, वस्त, प्रिय विषय आदि के वियोग होने पर आर्तनाद या शोक चिन्ता आदि करना इष्टवियोग रूप आर्तध्यान है।
(२) अनिष्टसंयोगजन्य - अप्रिय व्यक्ति, पदार्थ या विषय के संयोग होने पर दुःखी परेशान होना तथा उनसे दूर होने का सतत चिन्तन करना अनिष्ट संयोग आर्तध्यान है।
(३) व्याधि/वेदनाजन्य – अशातावेदनीय कर्म के उदय से शरीर में रोग आने तथा उसके निवारण हेतु सतत चिन्तन करना व्याधिजन्य आर्तध्यान है।
(४) निदानचिन्तनरूप - भोगाकांक्षा या अन्य किसी आकांक्षा से भविष्य में सत्कार्य के प्रतिफल का संकल्प करना निदानचिन्तनरूप आर्तध्यान है।
रौद्रध्यान चेतना की क्रूर हिंसक परिणति रौद्रध्यान कहलाती है। इस ध्यान को अति भयंकर ध्यान माना गया है क्योंकि इसमें हिंसा आदि करने के क्रूर अध्यवसाय होते हैं। .
टीकाकार शान्त्याचार्य ने इसे व्याख्यायित करते हुए लिखा है कि आत्मा (चेतना) की प्राणीवध आदि रूप परिणति रौद्रध्यान है। रौद्रध्यान के भी निम्न चार प्रकार प्ररूपित किये गये हैं -
(७) हिंसानुबन्धी – हिंसक प्रवृत्तियों में एकाग्र परिणति; (२) मृषानुबन्धी - असत्य भाषणं रूप चित्त की एकाग्र परिणति; (३) स्तेनानुबन्धी - चोरी सम्बन्धी निरन्तर परिणति;
(४) संरक्षणानुबन्धी - संग्रह-परिग्रह के संरक्षण की लालसा रूप एकाग्र परिणति।
व्यवहारिक जगत में रौद्रध्यान की पहचान हेतु स्थानांगसूत्र तथा 'ध्यानविचार नामक ग्रन्थ में इसके निम्न चार लक्षण प्रतिपादित किये गये हैं।" () उत्सन्नदोष - हिंसादि किसी एक पापकार्य में सतत प्रवृत्तिशील रहना; (२) बहुदोष - हिंसादि सभी पाप कार्यों में सतत प्रवृत्ति रखना;
७८ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ६०६ ७६(क) स्थानांग ४/१/६३
- (शान्त्याचाय)। - (अंगसुत्तापि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६०२);
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