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________________ ५१३ पर किया गया वर्गीकरण षड्विध तथा उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार अनेकविध (रूपक) भी है। योगसूत्र में महर्षि पतंजलि ने भी कर्म की चार जातियां प्रतिपादित की हैं। १. कृष्ण २. शुक्लकृष्ण ३. शुक्ल और ४ अशुक्ल अकृष्ण। इनमें योगी की कर्मजाति अशुक्ल अकृष्ण होती है तथा शेष तीनों जातियां सभी जीवों में होती हैं। जिनका चित्त कलुषित या क्रूर होता है उनका कर्म कृष्ण होता है अर्थात् वे कृष्ण जाति की श्रेणी में आते हैं। पीड़ा और अनुग्रह से मिश्रित कर्म शुक्ल-कृष्ण जाति के अन्तर्गत आता है। तप, स्वाध्याय और ध्यान में निरत लोगों के कर्म शुक्ल जाति में समाविष्ट किये जाते हैं तथा जो पुण्य के फल की भी इच्छा नहीं करते हैं उन क्षीण क्लेश चरमदेह योगियों के कर्म अशुक्ल अकृष्ण जाति की श्रेणी में वर्गीकृत किये जाते हैं। योगदर्शन का उपर्युक्त सिद्धान्त भी जैनदर्शन के लेश्या सिद्धान्त से विशिष्ट सम्बन्ध रखता है। सभी परम्पराओं में विभाजित मानसिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने के पश्चात् यहां इस निष्कर्ष को प्रस्तुत करना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि जैनदर्शन का लेश्या सिद्धान्त अति प्राचीन एवं मौलिक सिद्धान्त है। यह अन्य आजीवक आदि सम्प्रदायों की मान्यताओं से प्रभावित भी नहीं है। यद्यपि पाश्चात्य विचारक प्रो. ल्यूमन एवं डॉ. हर्मन जेकोबी ने लेश्या के विभाजन का आधार गोशालक द्वारा किया गया मानवों का विभाजन' माना है। उपर्युक्त विचारकों की यह मान्यता सर्वप्रथम इसलिए निराधार हो जाती है कि मानव प्रकृति का यह विभाजन गोशालक द्वारा नहीं वरन् ‘पूरण काश्यप द्वारा किया गया था। इसका स्पष्ट उल्लेख बौद्धग्रन्थ, दीर्घनिकाय एवं अंगुत्तरनिकाय में उपलब्ध होता है। डॉ. सागरमल जैन ने अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह सिद्ध कर दिया है कि लेश्या की अवधारणा जैनदर्शन की अपनी प्राचीन एवं मौलिक अवधारणा ६६ योगसूत्र ४/७। EU Sacred Books of the East, Vol. XLV Introduction, Page XXX - उद्धृत- उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन पृष्ठ २४२ । ६८ (क) अंगुत्तरनिकाय ६/६/३, भाग -३, पृष्ठ ६३; (ख) दीर्घनिकाय १/२, पृष्ठ १६, २० - उद्धृत उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन पृष्ठ २४२ । ६६ जैन धर्म का लेश्या सिद्धान्त डॉ. सागरमल जैन - (श्रमण पत्रिका १६६५ अंक ४-६). Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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