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६. परमशुक्लाभिजाति
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आजीवक आचार्य नन्द, वत्स, कृश, सांकृत्य, मस्करी गोशालक आदि का वर्ग ।
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पूर्णकाश्यप के उपर्युक्त मत की समालोचना करते हुए बुद्ध ने छः अभिजातियों की प्रज्ञापना की है जो मुख्यतः जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित हैं। उसके अनुसार कृष्णाभिजातक ( नीचकुल में उत्पन्न ) शुभ कर्म भी कर सकता है।
प्रस्तुत सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि यह आभिजातिक वर्णन लेश्यासिद्धान्त से इस अर्थ में भिन्नता रखता है कि जहां लेश्यासिद्धान्त प्राणीमात्र की मनोवृत्ति का विश्लेषण करता है वह आभिजातिक की अवधारणा मात्र मानव का ही वर्गीकरण करती है। इसकी अपेक्षा लेश्या - सिद्धान्त महाभारत के वर्गीकरण से अधिक साम्य रखता है। इसमें सनतकुमार दानवेंद्र वृत्रासुर से कहते हैं- 'प्राणियों के वर्ण (रंग) छ: प्रकार के हैं- १. कृष्ण २. धूम ३. नील ४. रक्त ५. हारिद्र और ६. शुक्ल । इनमें से कृष्ण, धूम और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है, रक्त वर्ण का अधिक सह्य होता है, हारिद्र वर्ण का सुखकर एवं शुक्ल वर्ण का अधिक सुखकर होता है । पुनश्च इसमें यह भी कहा गया है कि कृष्ण वर्ण की नीचगति होती है। वह नरक में ले जाने वाले कर्मों में आसक्त रहता है, नरक से निकलने वाले जीवों का वर्ण धूम होता है, यह पशु-पक्षी जाति का रंग है। नील वर्ण मनुष्य जाति का रंग है, हारिद्र वर्ण विशिष्ट देवताओं का रंग है तथा शुक्ल वर्ण सिद्धधारी साधकों का रंग है। 2 इस प्रकार . महाभारत के वर्ण - विश्लेषण से लेश्या सिद्धान्त का निकट का सम्बन्ध है।
६२ महाभारत शांतिपर्व - २८० से ८३ । ६३ गीता १६/१ ।
गीता के सोलहवें अध्याय में प्राणियों की आसुरी एवं दैविक ऐसी दो प्रकृतियों का उल्लेख और इसी आधार पर प्राणियों को दो भागों में विभाजित किया गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि दैवी गुण मोक्ष के हेतु हैं तथा आसुरी अवगुण बन्धन के हेतु हैं। गीता के इस द्विविध वर्गीकरण के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर हम देखते हैं कि जैनपरम्परा में षट्लेश्याओं की अवधारणा में भी मूलरूप से दो प्रकार का ही वर्गीकरण किया गया है।
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उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टतः कहा गया है कि कृष्ण, नील एवं कापोत अधर्म लेश्यायें हैं और इनके कारण जीव दुर्गति में जाता है तथा तेजो, पद्म एवं
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