________________
मनमाने फल खा लिये जायें।' दूसरे व्यक्ति ने कहा :- 'सारे वृक्ष को धराशायी करने की कहां जरूरत है, इसकी एक बड़ी डाली तोड़ लें तो भी अपना काम हो ही जायेगा।' तीसरे व्यक्ति ने कहा :- 'अरे भाईयों! बड़ी डाली तोड़ने की भी आवश्यकता नहीं है, हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए तो छोटी-छोटी शाखायें ही. पर्याप्त हैं। चौथे व्यक्ति ने कहा- 'मित्र! तुम्हारा कथन भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता छोटी-छोटी शाखाओं को तोड़ने की अपेक्षा गुच्छों को तोड़ने से ही हमारा काम चल जायेगा।' पांचवें व्यक्ति ने कहा :- 'गुच्छों को तोड़ना भी निरर्थक है, सिर्फ पके- पके फल तोड़ना ही श्रेयस्कर है। छुट्टे व्यक्ति ने कहा- 'अरे मित्रों! हमें यदि फल ही खाना है तो वृक्ष, टहनियों एवं फलों को नुकसान पहुंचाने की अपेक्षा नीचे गिरे हुए फलों को ही चुनकर खा लेना चाहिये ।'
उपर्युक्त व्यक्तियों की मनोवृति क्रमशः छः लेश्याओं की सूचक है। लेश्याओं का यह वर्गीकरण अशुभतम भावों से शुभतम भावों की ओर ले जाने, वाला है।
जैनदर्शन में लेश्या की अवधारणा के समकक्ष अन्य भारतीय परम्पराओं में भी कई अवधारणायें प्राप्त होती हैं। बौद्धग्रन्थों में छः प्रकार की जातियों का उल्लेख प्राप्त होता है 1
१. कृष्णाभिजात
२. नीलाभिजाति
३. लोहिताभिजाति
४. हरिद्राभिजाति
५. शुक्लाभिजाति
६१ अंगुत्तरनिकाय ६/६/३
५११
Jain Education International
-
-
क्रूरकर्म करने वाले सौकरिक, शाकुनिक आदि व्यक्तियों का वर्ग ।
बौद्धभिक्षु तथा अन्य कर्मवादी, क्रियावादी भिक्षुओं का वर्ग ।
एकशाटक निर्ग्रन्थों का वर्ग ।
श्वेतवस्त्रधारी या निर्वस्त्र व्यक्तियों का वर्ग ।
आजीवक श्रमण श्रमणीयों का वर्ग ।
उद्धृत् उत्तराध्ययनसूत्र; एक समीक्षात्मक अध्ययन पृष्ठ २४२ ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org