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शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट स्थिति मुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति अनुत्तर विमानवासी देवताओं की अपेक्षा से कही गई है क्योंकि उनकी उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागरोपम होती है। वे सदैव द्रव्य की अपेक्षा से शुक्ललेश्या सम्पन्न ही होते हैं। यह लेश्या सुगति में निमित्तभूत होती है।
उपर्युक्त तीनों शुभलेश्याओं के रंग के साथ एक विशिष्ट महत्त्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है। ये तीनों लेश्यायें धर्मलेश्यायें कही जाती हैं तथा भारतीय संस्कृति की मुख्य तीनों धार्मिक परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
वैदिकपरम्परा के सन्यासी गैरिक अर्थात लाल वर्ण के वस्त्रधारण करते हैं। तेजोलेश्या का वर्ण रक्त है, यह क्रांति का प्रतीक है, अतः आत्मविकास की दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने वाले सन्त गैरिक वस्त्र धारण करते हैं। लाल रंग में कालिमा का अभाव होता है अर्थात् जीवन में स्वार्थ का काला रंग नष्ट हो जाने पर प्रसंगोचित शब्दावली में तीनों अधर्म लेश्याओं-कृष्ण, नील एवं कापोत से मुक्त होने पर लाल रंग रूप शुभ उत्साहवर्धक पुरूषार्थ जागृत होता है।
• बौद्ध भिक्षु पीत वस्त्र धारण करते हैं। जैनग्रन्थों में पद्मलेश्या को पीतवर्णी कहा गया है। पीला वर्ण ध्यान का प्रतीक है। पीले रंग में किसी भी प्रकार की उत्तेजना नहीं होती है। यह आत्मज्योति को प्रकट करने की प्रेरणा देता है। - जैनपरम्परा में साधुओं के श्वेत वस्त्र धारण करने का विधान है। शुक्ललेश्या का वर्ण भी श्वेत है, जैनसाधु का आदर्श है शुक्लध्यान के द्वारा पूर्ण विशुद्धि को प्राप्त करना।
. इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्याओं का व्यापक विश्लेषण किया गया है। यह विश्लेषण द्रव्यलेश्या एवं भावलेश्या दोनों की अपेक्षा से किया गया है।
. लेश्याओं के सन्दर्भ में जैन साहित्य में एक अत्यन्त मार्मिक रूपक प्रस्तुत किया जाता है जिसके द्वारा लेश्याओं का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है
एक बार छ: व्यक्तियों की मित्रमण्डली जंगल में सैर करने गई। वहां एक जामुन के पेड़ को देखकर सभी का मन जामुन खाने के लिए लालायित हो उठा। उनमें से एक व्यक्ति ने कहा:- 'क्यों न इस वृक्ष को गिरा दिया जाए और
६० उत्तराध्ययनसूत्र ३४/३६ ।
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