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________________ ५०८ ३. कापोतलेश्या यह तृतीय लेश्या है। इसका रंग अलसी के पुष्प, तेल-कंटक एवं कबूतर की गवा के समान है तथा इसका रस कच्चे आम के रस से अनन्तगुणा अधिक कसैला होता है। इसकी गन्ध, स्पर्श एवं परिणाम कृष्णलेश्या के सदृश हैं। कापोतलेश्या वाले जीवों के भावों में यद्यपि कृष्ण एवं नीललेश्या की अपेक्षा अशुभता कम होती है फिर भी ये कुटिल होते हैं अर्थात् इनकी कथनी और करनी में भिन्नता होती है। मनोभावों में सरलता नहीं होती । ये जीव अपने दुर्गुणों को छिपाकर सद्गुणों को प्रकट करते हैं। कापोतलेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक तीन सागरोपम है। यह भी अधर्म लेश्या है, अतः दुर्गति प्रदायक है। ४. तेजोलेश्या चतुर्थ लेश्या का नाम तेजोलेश्या है। इसके रंग का विश्लेषण करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि इसका रंग हिंगुल गेरू, उदीयमान बालसूर्य, तोते की चोंच तथा प्रदीप की लौ के समान अर्थात् रक्त वर्ण होता है। साम्यवादियों की दृष्टि से लाल रंग क्रांति का प्रतीक है। अधर्मलेश्या से धर्मलेश्या की ओर उन्मुख होना एक क्रांतिकारी कदम है अतः इस दृष्टि से भी इस लेश्या के वर्ण की सार्थकता प्रतीत होती है। इसका रस पके हुए आम एवं कबीट के रस से अनन्तगुणा खट्टामीठा होता है। तेजोलेश्या की गन्ध सुगन्धित पुष्प तथा पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों की सुगन्ध से अनन्तगुणा अधिक सुवासित होती है, इसका स्पर्श बुर (वनस्पति विशेष) नवनीत, शिरीष पुष्पों के कोमल स्पर्श से अनन्तगुणा अधिक कोमल होता है। परिणाम पूर्वोक्त लेश्याओं के समान हैं। इस लेश्या वाले जीवों की प्रकृति नम्र व अचपल होती है, वे जितेन्द्रिय, तपस्वी, पापभीरू और मुक्ति की गवेषणा करने वाले होते हैं। इस । उत्तराध्ययनसूत्र ३४/६ । ५२ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/२५ एवं २६ । । उत्तराध्ययनसूत्र ३४/३६ एवं ५६ । १४ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/७ । " उत्तराध्ययनसूत्र ३४/१३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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