SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०७ संग्रह में निरत है, तीव्र-आरम्भी, क्षुद्र, निर्दयी, नृशंस एवं अविचारित कार्य करने वाले हैं, ऐन्द्रिक विषयों की पूर्ति में सतत प्रयत्नशील तथा अपने छोटे से छोटे कार्य या स्वार्थ के लिए दूसरों का बड़े से बड़ा अहित करने वाले हैं, वे कृष्णलेश्या युक्त जीव हैं। इनकी जघन्य स्थिति एक मुहूर्त एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम है । सातवीं नरक के जीवों की उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागरोपम है और वे सदैव द्रव्यापेक्षा कृष्णलेश्या वाले ही होते हैं। कृष्ण लेश्या दुर्गति का कारण होती है।" . इस प्रकार कृष्णलेशी जीवों का आभामण्डल कृष्णवर्ण से युक्त होता है। उनके अन्तर्मानस में निकृष्टतम दुर्गुणो का साम्राज्य होता है। वैदिक साहित्य के अनुसार मृत्यु के देवता 'यम' का रंग काला है; क्योंकि यम, सतत इन्हीं भावों में रहता है कि कब कोई मरे और वह उसे ले जाये। २. नीललेश्या __नीललेश्या द्वितीय लेश्या है। इसमें कालापन कुछ हल्का हो जाता है यह कृष्णलेश्या से कम अहितकर है। इसका रंग नील-अशोक वृक्ष, चासपक्षी के पंख तथा स्निग्ध वैडूर्यमणि के समान नीला होता है । रस त्रिकूट (सूंठ, कालीमिर्च और पीपल का मिश्रण) एवं गजपीपल के रस से अनन्तगुणा तिक्त होता है तथा इसकी गन्ध, रस एवं परिणाम कृष्णलेश्या के सदृश होते हैं। नीललेश्या वाले जीव ईर्ष्यालु, कदाग्रही, अतपस्वी, अज्ञानी, मायावी, निर्लज्ज, गृहप्रद्वेषी, शठ, प्रमत्त, रसलोलुपी सुख के गवेषक होते हैं। ये स्वार्थी भी होते हैं। किन्तु कृष्णलेश्या की अपेक्षा इनके विचार कुछ सन्तुलित होते हैं। इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम की होती है। इस लेश्या वाले जीव दुर्गति में जाते हैं। ४६ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/२१ एवं २२ । ४७ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/३४ एवं ५६ । ४८ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/५ एवं १। ४६ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/२३ एवं २४ । ५० उत्तराध्ययनसूत्र ३४/३५ एवं ५६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy