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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्याओं के निम्न छः प्रकार प्रतिपादित किये गये हैं- (१) कृष्णलेश्या (२) नीललेश्या (३) कापोतलेश्या (४) तेजोलेश्या (५) पद्मलेश्या और (६) शुक्ललेश्या । इसमें उपर्युक्त छः ही लेश्याओं का नाम, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, परिणाम, लक्ष्य, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य इन ग्यारह अपेक्षाओं से विस्तृत वर्णन किया गया है। भगवती एवं प्रज्ञापना में पन्द्रह द्वारों से लेश्या का विवेचन किया गया है 2 तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं गोम्मटसार में लेश्या की चर्चा सोलह द्वारों से की गई है। 13 उसमें नामद्वार के स्थान पर निर्देश शब्द का प्रयोग किया गया है। लेश्याओं का नामकरण वर्ण अर्थात् रंग के आधार पर किया गया है । ये वर्ण वस्तुतः मनोदशाओं के ही सूचक हैं यथा कृष्णवर्ण निकृष्टतम मनोदशा का सूचक है। आगे उतराध्ययनसूत्र के अनुसार उपर्युक्त छः ही लेश्याओं का क्रमशः विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है १. कृष्णलेश्या कृष्णलेश्या प्राणी की निकृष्टतम अवस्था की परिचायक है। उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतीकात्मक रूप से इसके वर्ण का परिचय देते हुए कहा गया है कि कृष्णलेश्या का वर्ण स्निग्धमेघ (सजलबादल), भैंस, द्रौणकाक, खंजनपक्षी, अंजन एवं नयनतारा के सदृश होता है। इसका तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्या का रंग गहरा काला होता है। इसका रस कडुवे तुम्बे, नीम आदि के समान और गन्ध, गाय, कुत्ते एवं सर्प के मृत कलेवर तथा स्पर्श शाकवृक्षों के समान है। 14 जहां तक कृष्णलेश्या के परिणाम का प्रश्न है उतराध्ययनसूत्र में मानसिक परिणामों की . तरतमता के आधार पर सभी लेश्याओं के तीन, नौ, सत्ताईस, इक्यासी एवं दो सौ तैयालिस विकल्पों का उल्लेख मिलता है। 15 ५०६ कृष्णलेश्या वाले जीवों की प्रकृति तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए इसमें कहा गया है कि जो पांचों आश्रवों अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार एवं ४१ लेश्या और मनोविज्ञान, पृष्ठ २७ ४२ (क) भगवती ४/१०/८ (ख) प्रज्ञापना १७ / ४/१ ४३ (क) तत्त्वार्थराजवार्तिक पृष्ठ २३८ (ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड ४६१ एवं ६२ । ४४ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/४, १०, १६ एवं १८ । ४५ उत्तराध्ययनसूत्र ३४ / २० । Jain Education International ( डॉ. शान्ता भानावत ) ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ १८५) । ( उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ २२६) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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