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कर्मवर्गणा निष्पन्न लेश्या
लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है। लेश्या कर्मरूप होते हुए भी उससे पृथक् है क्योंकि दोनों का स्वरूप भिन्न- भिन्न है। अयोगी केवली की स्थिति में लेश्या का अभाव हो जाता है जबकि वहां अघाती कर्मों की सत्ता रहती है। इससे भी इन दोनों का भिन्नत्व सिद्ध होता है।
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इस परिभाषा के सन्दर्भ में डॉ. शान्ता भानावत का मत है कि जीव जब तक कार्मण वर्गणाओं का आकर्षण करता रहता है तब तक ही लेश्या का अस्तित्व रहता है। उसके पश्चात् जीव अलेशी हो जाता है। 1
इसके अतिरिक्त लेश्या की एक निम्न परिभाषा भी उपलब्ध होती है'कषायोदयरंजित योग प्रवृत्ति । इसके अनुसार योग के परिणाम को लेश्या कहा जाता है। इस परिणमन रूप लेश्या के प्रवाह को प्रवाहित करने का कार्य कषाय का है । अतः लेश्या की एक परिभाषा यह भी मिलती है कि कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है।
लेश्या को परिभाषित करने वाली एक प्राचीन गाथा का भी उल्लेख अनेक ग्रन्थों में किया गया है -
इसके अनुसार स्फटिक रत्न में जिस वर्ण (रंग) का धागा पिरोया जाता है वैसा प्रतिबिंबित होने लगता है। इसी प्रकार जैसे ही लेश्या की वर्गणायें जीव के सम्मुख आती हैं, वैसे ही तदनुरूप उसके आत्मपरिणाम बन जाते हैं।
करती है।
'कृष्णादि द्रव्य साचिव्यात् परिणामो च आत्मनः स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्द प्रयुज्यते
इस प्रकार लेश्या - आत्मपरिणाम रूप भी है तथा आत्मपरिणाम की संवाहिका भी है। कार्य भी है; कारण भी ।
यह परिभाषा लेश्या के द्रव्य एवं भाव दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व
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