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________________ ५०३ लेश्या-सिद्धान्त 'लेश्या' जैनदर्शन का एक परिभाषिक एवं महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैनाचार्यों ने इसका सूक्ष्म एवं तार्किक विश्लेषण किया है। उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्या वृत्ति का व्यापक रूप से निरूपण किया गया है। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक वर्ग हैं; उनमें से एक वर्ग का नाम लेश्या है। विभिन्न संयोगों द्वारा जनित जीव के शुभाशुभ भावरूप अध्यवसायों को लेश्या कहा जाता है। लेश्या की परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र का चौंतीसवां 'लेश्या-अध्ययन' लेश्या विषयक वर्णन प्रस्तुत करता है, किन्तु इसमें इसकी कोई परिभाषा उपलब्ध नहीं होती है। सम्भवतः इसका प्रमुख कारण आगमिक प्राचीन शैली होना चाहिए । प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में प्रायः किसी भी सिद्धान्त का स्वरूप परिभाषात्मक रूप से स्पष्ट न करके उसके भेद-प्रभेदों से समझाया जाता था। अतः उत्तराध्ययनसूत्र में भी लेश्या के भेद-प्रभेदों का ही वर्णन किया गया है। शान्त्याचार्य ने लेश्या की अनेक परिभाषायें प्रस्तुत की हैं; जो इसके स्वरूप को स्पष्ट करने में अत्यन्त सहायक हैं। अब हम क्रमशः उनका वर्णन प्रस्तुत करेंगे। योग परिणाम लेश्या लेश्या की एक परिभाषा है: 'योगः परिणामो लेश्या' अर्थात् लेश्या योग का परिणाम है। योग के परिणाम को लेश्या कहा गया है। शान्त्याचार्य ने प्रज्ञापनासूत्र की वृत्ति के आधार पर इसकी व्याख्या की है। लेश्या एवं योग का अविनाभावी सम्बन्ध है अर्थात् जहां लेश्या है वहां योग है, जहा योग है वहां लेश्या है। दूसरे शब्दों में जहां योग का विच्छेद होता है वहां लेश्या का भी परिसमापन हो जाता है। लेश्या एवं योग में अविनाभावी सम्बन्ध होते हुए भी लेश्या योगवर्गणारूप पुद्गलों के अन्तर्गत नहीं हैं। वह एक स्वतन्त्र पुदगलवर्गणा है। ४० उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ६५० - (शान्त्याचार्य)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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