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________________ ४६६ मान मुक्ति से लाभ उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ अध्ययन में मान का विलय करने अर्थात् मान से आत्मा को विलग रखने का निर्देश है। इसका गूढ अर्थ यह है कि विनय ; भाव (विनम्रता) से मान पर विजय प्राप्त करना चाहिये। इसके उनतीसवें अध्ययन में मान विजय से होने वाले लाभ का वर्णन, करते हुए लिखा गया है कि मान-विजय से जीव मृदुता को प्राप्त होता है। मान वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। माया माया शब्द मा + या से बना है। 'या' का अर्थ 'जो' तथा 'मा' का अर्थ 'नहीं है। इस प्रकार जो नहीं है उसको प्रस्तुत करना 'माया' है इसे दूसरे शब्दों में कपटाचार भी कहा जा सकता है। माया के भी निम्न चार प्रकार हैं - (१) अनन्तानुबन्धी माया - बांस की जड़ के समान कपटवृत्ति; (२) अप्रत्याख्यानी माया - मेंढ़क के सींग के समान कपटवृत्ति; (३) प्रत्याख्यानी माया - गोमूत्र की धारा की भांति वृत्ति; (४) संज्वलन माया - बांस के छिलके के समान होने वाली मायावृत्ति। माया-मुक्ति से लाभ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि माया को जीतने पर ऋजुभाव अर्थात सरलता की प्राप्ति होती है। मायावेदनीय कर्म का बन्ध नहीं होता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। इसमें यह भी कहा गया है कि सरल हृदय वाले व्यक्ति के जीवन में ही धर्म का निवास होता है । माया से मुक्त होने पर ही धर्म का लाभ प्राप्त होता है। ३२ उत्तराध्ययनसूत्र २६/६६। ३३ उत्तराध्ययनसूत्र २६/७० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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