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चाहिये।” क्रोध रूपी बुराई से अपने आपको बचाना चाहिये। इसके उनतीसवें अध्ययन में क्रोध विमुक्ति से होने वाले लाभ को वर्णित करते हुए लिखा है कि क्रोध विजय से जीव शान्ति एवं क्षमाभाव को धारण करता है, क्रोधवेदनीयकर्म का बन्ध नहीं करता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
मान स्वयं को श्रेष्ठ एवं दूसरों को हीन मानने की मानसिकता मान है। इसे अहंकार, गर्व, घमण्ड आदि नामों से भी पुकारा जाता है। अहंकारी व्यक्ति की मानसिकता को स्पष्ट करते हुए सूत्र कृतांग में कहा गया है कि अभिमानी व्यक्ति अहंकार से ग्रस्त होकर दूसरों को तुच्छ मानता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में मान के आठ भेद किये गये हैं। जिनका नामोल्लेख इसकी टीकाओं में निम्न रूप से मिलता हैं" -
(१) जाति (२) कुल (३) बल (शक्ति) (४) ऐश्वर्य (५) बुद्धि (६) ज्ञान (७) सौन्दर्य और (८) अहंकार।
मान के भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन ऐसे चार भेद किये गये हैं। (१) · अनन्तानुबन्धी मान - पत्थर के स्तम्भ के समान जो कभी झुकता ही नहीं,
चाहे टूट जाये। । (२) अप्रत्याख्यानी मान - जो अस्थि के समान विशेष प्रयत्न करने से झुक
जाता है। (३) . प्रत्याख्यानी मान - जो लकड़ी के समान प्रयत्न करने पर झुक जाता है। (४) संज्वलन मान - जो तृण के समान झुक जाता है।
२७ उत्तराध्ययनसूत्र ४/१२ । २९ उत्तराध्ययनसूत्र २६/६८ । २६ सूत्रकृतांग १/१३/८ । ३० उत्तराध्ययनसूत्र ३१/१०। ३१ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३०१६
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३०२६
- (भावविजयजी)। - (नेमिचन्द्राचार्य)। .
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