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________________ (१) अनन्तानुबन्धी क्रोध यह क्रोध का तीव्रतम रूप है। पर्वत में पड़ी दरार के समान जो क्रोध किसी के प्रति एक बार उत्पन्न होने के बाद जीवनपर्यन्त बना रहे, कभी समाप्त न हो, वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है। दूसरे शब्दों में जो क्रोध संसार में अनन्तकाल तक भ्रमण कराये जिस क्रोध का चक्र कभी समाप्त न हो वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है । (२) अप्रत्याख्यानी क्रोध तीव्रतर क्रोध अप्रत्ययाख्यानी क्रोध कहलाता है। इस की उपमा सूखे हुए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार से दी जाती है। जैसे जलाशय की भूमि में पड़ी दरार आगामी वर्षा में मिट जाती है, उसी प्रकार जो क्रोध वर्ष पर्यन्त बना रहे, वह अप्रत्याख्यानी क्रोध है । (३) प्रत्याख्यानी क्रोध क्रोध का वह आवेग प्रत्याख्यानी है जिस पर नियन्त्रण रखा जा सके । वह रेत की लकीर के समान है। जैसे रेत की लकीर हवा के झोंकों से मिट जाती है वैसे ही यह क्रोध चार माह पर्यन्त बना रहता है फिर समाप्त हो जाता है। मिलता है 26. ૪૬૭ क्रोध है। (४) संज्वलन यह अल्पकालीन क्रोध है । जैसे 'पानी में खींची जाने वाली रेखाएं अस्थायी होती हैं अर्थात् शीघ्र मिटती चली जाती हैं, उसी प्रकार जिस क्रोध में स्थायित्व नहीं है वह संज्वलन क्रोध है। इसकी अधिकतम अवधि पन्द्रह दिन है । बौद्धदर्शन के ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में तीन प्रकार के क्रोध का वर्णन - - - २६ अंगुत्तरनिकाय ३/१३० Jain Education International (१) पत्थर में पड़ी दरार के समान चिरस्थायी क्रोध; (२) पृथ्वी में पड़ी दरार के समान अल्पस्थायी क्रोध; (३) पानी में खींची रेखा के समान तत्काल समाप्त हो जाने वाला क्रोधविमुक्ति से लाभ उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक स्थलों पर क्रोध के त्याग की प्रेरणा दी गई है। इसके चतुर्थ अध्ययन में कहा गया है कि साधक को क्रोध से अपनी रक्षा करनी जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक - अध्ययन, भाग १, पृष्ठ ५०१ । For Personal & Private Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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