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(२) कोप – कामाग्नि से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति कोप है।
(३) रोष - क्रोधभाव को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाला रूप रोष है। (४) दोष – स्वयं या दूसरे पर दोषारोपण करना दोष है।
कई
व्यक्ति क्रोधाविष्ट होकर स्वयं को दोषी घोषित करते हैं जैसे- हां भई, हम तो ऐसे ही हैं, हम तो झूठ ही बोलते हैं। दूसरी ओर, कई व्यक्ति दूसरों को दोषी बताते हैं, जैसे तुमने ऐसा किया, तुमने वैसा किया, तुम तो झूठे हो आदि ।
(५) अक्षमा दूसरों के अपराध को क्षमा न करना अक्षमा है।
(६) संज्वलन - सम् ज्वलन शब्द के योग से संज्वलन शब्द बना है किन्तु यहां सम् उपसर्ग सम्यक् के अर्थ में प्रयुक्त न होकर पुनः पुनः के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अर्थात् क्रोध में बार-बार आगबबूला होना संज्वलन है।
(७) कलह – अनुचित शब्दावली का प्रयोग करना कलह है। (८) चांडिक्य - उग्ररूप धारण करना चांडिक्य है।
उत्तराध्ययनसूत्र में भी क्रोधयुक्त कर्मों को चांडालिककर्म कहा गया है। 24 टीकाकार शान्त्याचार्य ने चांडालिक शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि चण्ड का अर्थ क्रोध एवं अलीक का अर्थ असत्य है। इस प्रकार क्रोधवश असत्य `बोलना चाण्डालीककर्म है। इस टीका में भी चण्डाल का एक लाक्षणिक अर्थ क्रूरता भी किया है। 25 अतः क्रूरकर्म चाण्डालीककर्म है।
(६) मण्डन
दूसरों के प्रति अन्याय करना, मारपीट करना आदि
मण्डन है।
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२४ उत्तराध्ययनसूत्र १/१० । २५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ४७
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(१०) विवाद उत्तेजक रूप से वाद प्रतिवाद करना विवाद है ।
इस प्रकार उपर्युक्त दस ही शब्द जीव की आवेशात्मक अभिव्यक्तियां हैं, जिन्हें 'क्रोध' के रूप में पहचाना जाता है।
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क्रोध के प्रकार
आवेग की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर क्रोध के निम्न चार भेद प्रतिपादित किये गये हैं -
- ( शान्त्याचार्य) ।
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