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भेद ही स्वीकार किये जाते हैं किन्तु कहीं-कहीं राग-द्वेष को भी कषाय के अन्तर्गत माना जाता है।
आचार्य उमास्वाति ने प्रशमरतिप्रकरण ग्रन्थ में कषाय के दो भेद राग और द्वेष के रूप में वर्णित किये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में एक स्थान पर यह कहा गया है कि रागो य दोसो य कम्मबीय' अर्थात राग एवं द्वेष ही कर्मबीज हैं। इससे भी यह प्रतिध्वनित होता है कि कषाय राग-द्वेष रूप हैं क्योंकि संसार परिभ्रमण का मुख्य कारण कषाय को ही माना गया है। क्रोधादि चारों कषायों का समावेश राग. एवं द्वेष इन दोनों में हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कषाय को अग्नि भी कहा गया है, जो आत्मा के सदगुणों को जलाकर नष्ट कर देती है।
विशेषावश्यकभाष्य में नैगमनय एवं संग्रहनय की अपेक्षा से क्रोध एवं मान को द्वेष रूप तथा माया एवं लोभ को राग रूप माना गया है। व्यवहारनय की अपेक्षा से क्रोध, मान एवं माया द्वेष रूप तथा लोभ राग रूप है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से क्रोध द्वेष रूप तथा मान-माया एवं लोभ उभयरूप अर्थात् कभी राग रूप तथा कभी द्वेषरूप होते हैं। यह वर्तमानकालसापेक्ष है। अतः प्रसंगानुसार मान आदि को राग अथवा द्वेष रूप कहा गया है। लोकव्यवहार में कषाय को क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में जाना जाता है ।
क्रोध क्रोध एक आवेगात्मक अवस्था है जो व्यक्ति के शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक सन्तुलन को विकृत करती है। क्रोध के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है - 'क्रोध शरीर एवं मन को सन्ताप देता है; क्रोध वैर का कारण है; क्रोध दुर्गति की पगडण्डी है और क्रोध मोक्ष की प्राप्ति में अर्गला के समान हैं।2
भगवतीसूत्र में क्रोध के निम्न समानार्थक शब्द उपलब्ध होते हैं।23 (१) क्रोध - आवेशात्मक अवस्था क्रोध है।
१६ प्रशमरतिप्रकरण ३२ । २० उत्तराध्ययनसूत्र ३२/७ । २१ उत्तराध्ययनसूत्र २३/५३ । २२ योगशास्त्र ४/६। २३ भगवती १२/५/३
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ५६४) ।
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