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कषाय का व्युत्पत्तिपरक अर्थ कषाय शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से प्राप्त होती है -
(१) 'कष् हिंसायाम्' अर्थात् हिंसार्थक कष् धातु से; और (२) कृष् विलेखने अर्थात् जोतनार्थक कृष् धातु से।
उपर्युक्त दोनों धातुओं के आधार पर गोम्मटसार में कषाय के निम्न दो अर्थ उपलब्ध होते हैं -
(१) कष् धातु की अपेक्षा से जो सम्यक्त्व तथा वीतरागता आदि विशुद्ध भावों का हनन करते हैं, वे कषाय हैं।
(२) कृष् धातु की अपेक्षा से जो कर्मरूपी खेत को जोतकर सुख दुःख रूपी फलों को उत्पन्न करते हैं, वह कषाय है।
कषाय की उपर्युक्त व्याख्याओं के परिप्रेक्ष्य में हमने देखा कि आत्मा को कलुषित, विकृत या मलिन करने वाली चित्तवृत्तियां कषाय हैं। मनोविज्ञान की भाषा में हम इन्हें आवेशात्मक अवस्थायें कह सकते हैं।
आत्मा में उत्पन्न होने वाली इन आवेशात्मक अवस्थाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इन्हें कषाय एवं नोकषाय । (सहयोगी आवेग) के रूप में अभिहित किया गया है।"
__ जैनदर्शन में आवेगों की दो कोटियां निर्धारित की गई हैं - तीव्र और मन्द। तीव्र आवेग कषायरूप हैं तथा मन्द आवेग नोकषाय रूप हैं । पुनश्च कषाय के क्रोध, मान, माया एवं लोभ आदि चारों भेदों को भी तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर चार-चार भागों में विभाजित किया गया है। अब हम क्रमशः कषाय एवं नोकषाय के भेद-प्रभेदों की चर्चा करेंगे।
कषाय के भेद उत्तराध्ययनसूत्र में कषाय के निम्न चार भेद प्रतिपादित किये गये हैंक्रोध, मान माया और लोभ। सामान्यतः जैन धर्म-दर्शन में कषाय के उपर्युक्त चार
गोम्मटसार ६/१२ एवं ५३। १७ उत्तराध्ययनसूत्र ३३/१०।।
उतराध्ययनसूत्र ४/१२, २६/६५ से ७१।
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