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गया है। किन्तु सामान्यतः आगमिक एवं जैन दार्शनिक ग्रन्थों में कषाय शब्द मलिन चित्तवृत्तियों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
उत्तराध्ययनसूत्र एवं उसकी टीकाओं में कषाय के स्वरूप की कोई स्पष्ट व्याख्या उपलब्ध नहीं होती है। फिर भी इसमें क्रोधादि कषायों से विमुक्ति की चर्चा अनेक स्थलों पर की गई है।"
कषाय की पारिभाषिक व्याख्यायें
अभिधानराजेन्द्रकोश के अनुसार 'आत्मानं कषयतीति कषायः' अर्थात् जो आत्मा को कसते हैं - कमों के बन्धन में बांधते हैं, वे कषाय हैं। ..
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार जिनसे दुःखों की प्राप्ति होती है, वे कषाय हैं।
'तत्वार्थराजवार्तिक' में कषाय के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से जो क्रोधादि रूप कालुष्यपूर्ण मनोभाव उत्पन्न होते हैं तथा जो आत्मस्वरूप को आवृत करते हैं, उसे बन्धन में डालते हैं, वे कषाय हैं।
कषाय का शाब्दिक अर्थ कषाय शब्द कष् + आय इन दो शब्दों के संयोग से बना है। 'कष्' का अर्थ है संसार अथवा जन्म-मरण एवं आय का अर्थ है लाभ। इस प्रकार संसार की अभिवृद्धि कराने वाली चित्तवृत्ति कषाय है।
संस्कृतहिन्दीकोश में कषाय शब्द के अनेक अर्थ किये गये हैं। उनमें से कुछ प्रस्तुत प्रसंग से सम्बन्धित हैं - मैल, अस्वच्छता, आवेश तथा सांसारिक विषयों में आसक्ति भाव कषाय है।
१० सूत्रकृतांग २/१/१६
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ३५१)। ११ उत्तराध्ययनसूत्र १/६; २/२६; ४/१२। १२ अभिधानराजेन्द्रकोश, तृतीयखण्ड, पृष्ठ ३६५ । १३ विशेषावश्यकभाष्य गाथा २६७८ (भाग - २, पृष्ठ ४७८)। १४ तत्त्वार्थराजवार्तिक २/६, पृष्ठ १०८ |
१५ संस्कृतहिन्दीकोश, पृष्ठ २६० एवं २६१ । Jain Education International
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