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संज्ञा का षोडशविध वर्गीकरण
संज्ञा के चतुर्विध एवं दशविध वर्गीकरण के अतिरिक्त पंचदशविध एवं षोडशविध वर्गीकरण भी प्राप्त होता है। जिसमें दस तक तो पूर्वोक्त ही हैं । उसके आगे के छ: भेद निम्न हैं -
(११) सुखसंज्ञा - सातावेदनीयकर्म के उदय से होने वाली सुखद अनुभूति सुखसंज्ञा है;
(१२) दुःखसंज्ञा – असातावेदनीयकर्म के उदय से होने वाली दुःखद अनुभूति दुःख संज्ञा है;
(१३) मोहसंज्ञा - मिथ्यादर्शन रूप जीव की मनोवृत्ति मोहसंज्ञा है। दूसरे शब्दों में मोहग्रसित चेतना ही मोहसंज्ञा है;
(१४) विचिकित्सासंज्ञा - चित्त की अस्थिर समीक्षकवृत्ति विचिकित्सासंज्ञा है;
(१५) धर्मसंज्ञा - आत्मा की कर्मक्षय के निमित्त से होने वाली स्वभाव परिणति धर्मसंज्ञा है। स्वस्वभाव में उपस्थिति और परपरिणति से निवृत्ति धर्मसंज्ञा है;
(१६) शोकसंज्ञा - इष्टवियोग से उत्पन्न होने वाली विलाप रूप मनोवृत्ति शोकसंज्ञा है।
कषाय
'कषाय' जैन मनोविज्ञान एवं जैन कर्मशास्त्र का मुख्य प्रत्यय है। जैनदर्शन में राग-द्वेष से जनित क्रोध, मान, माया, लोभ रूप मलिन चित्तवृत्तियों को कषाय कहा गया है।
. जैनागमों में कषाय कसैलेपन के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन की अठारहवीं एवं इकतीसवीं गाथा में प्रयुक्त कषाय शब्द कसैलेपन का द्योतक है। आचारांगसूत्र में भी कषाय शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सूत्रकृतांग में कषाय का अर्थ कटुवचन भी किया
आचारांग १/५/६/१३०
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ४७)।
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