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प्राणी की संचयात्मक वृत्ति परिग्रहसंज्ञा
(४) परिग्रहसंज्ञा कहलाती है। उपर्युक्त तीनों संज्ञाओं के समान स्थानांगसूत्र में इसकी उत्पत्ति के भी
निम्न चार प्रकार बतलाये हैं
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७ स्थानांग ४/४/५८ १ प्रज्ञापना १/५
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दशविध वर्गीकरण
प्रज्ञापनासूत्र में दशविध संज्ञाओं का वर्गीकरण उपलब्ध होता है। इसमें आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह संज्ञाओं के साथ-साथ क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक एवं ओघ संज्ञा को भी समाहित किया है। इनमें से आहार आदि चार संज्ञाओं का विवरण पूर्व में दिया गया है। शेष छः संज्ञाओं का विवरण निम्न है।
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(५) क्रोधसंज्ञा - क्रोधादि आवेशात्मक भाव क्रोध संज्ञा है;
(६) मानसंज्ञा - अहंकार की मनोवृत्ति मान संज्ञा है; (७) मायासंज्ञा
कपट वृत्ति माया संज्ञा है;
(८) लोभसंज्ञा लालसा की भावना लोभ संज्ञा है;
(६) ओघसंज्ञा - प्राणी मात्र में रहने वाली सामान्य अनुकरण की वृत्ति या सामुदायिकता की भावना ओघसंज्ञा है अर्थात् अपनी जाति, वर्ग, आदि के अनुकरण की वृत्ति ओघसंज्ञा है;
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(१) परिग्रह का त्याग न होने से या संचय वृत्ति से)
(२) लोभ मोहनीयकर्म के उदय से;
(३) परिग्रह वर्धक चर्चा सुनने से;
(४) परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से ।
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(१०) लोकसंज्ञा लोक व्यवहार से चेतना का प्रभावित होना लोकसंज्ञा है। जैसे सर्प देवता है, धान यक्ष है, ब्राह्मण देवता है आदि ।
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( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६७०) | ( उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ४) ।
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