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उत्तराध्ययनसूत्र में संज्ञा के सम्बन्ध में कहीं कोई स्पष्ट चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। मात्र इसके इकतीसवें अध्ययन में 'संज्ञा' शब्द का प्रयोग मिलता है। .. टीकाकारों ने इसी के आधार पर चार संज्ञाओं का नामोल्लेख किया है।'
संज्ञा का चतुर्विध वर्गीकरण (१) आहारसंज्ञा - क्षुधावेदनीयकर्म के उदय से आहार करने की लालसा आहार संज्ञा है। स्थानांगसूत्र में इसकी उत्पत्ति के निम्न चार कारण बताये
(१) पेट के खाली होने से (२) क्षुधा वेदनीयकर्म के उदय से; (३) आहार सम्बन्धी चर्चा से; (४) आहार का चिन्तन करने से।
(२) भयसंज्ञा - भय मोहनीयकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला आवेग भय संज्ञा है। स्थानांगसूत्र के अनुसार इसकी उत्पत्ति के चार कारण निम्न
है
(१) सत्य (शौर्य) की हीनता से; (२) भय मोहनीयकर्म के उदय से; (३) भयोत्पादक वचनों को सुनकर; . (४) भय सम्बन्धी घटनाओं के चिन्तन से।
(३) मैथुनसंज्ञा - कामवासना जन्य आवेग मैथुनसंज्ञा है। इसके भी स्थानांगसूत्र में निम्न चार कारण बताये हैं -
(१) शरीर में मांस, वीर्य, रक्त आदि की मात्रा बढ़ जाने से; (२) मोहनीयकर्म के उदय से (३) काम सम्बन्धी चर्चा करने से; (४) वासनात्मक चिन्तन करने से।
२ उत्तराध्ययनसूत्र ३१/६। ३ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ६१३
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ६०३ .४ स्थानांग ४/४/५७६ ५ स्थानांग ४/४/५८० ६ स्थानांग ४/४/५८१
- (शान्त्याचार्य)। - (लक्ष्मीवल्लभगणि)। - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६७०)। - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६७०)। - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६७०)।
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