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________________ ४८६ होते हैं। जिसमें एक ओर मानव प्रकृति की व्याख्या है तो दूसरी ओर मानवजीवन के आदर्शों का प्रस्तुतीकरण । इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी भी धर्मदर्शन के लिये मानव प्रकृति का विश्लेषण आवश्यक है; उसके अभाव में मानव जीवन के आदर्शों को साकार नहीं किया जा सकता है। धर्मदर्शन के आदर्शों को साकार करने के लिये उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित मानव प्रकृति का विवेचन आवश्यक है। इसमें मनुष्य में निहित वासनाओं या कषायों का जहां एक ओर यथार्थ चित्रण है, वहीं दूसरी ओर उनसे ऊपर उठने का मार्ग भी बताया गया है। हम यहां सर्वप्रथम मानव जीवन की मूल प्रवृत्तियां, जिन्हें जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में संज्ञा कहा गया है और उसके बाद हम कषाय की अवधारणा की, विस्तृत विवेचना करेंगे । उसके पश्चात यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि वासनामय जीवन से ऊपर उठकर व्यक्ति आदर्श की दिशा में कैसे अभिभूत हो सकता है । इसे ही स्पष्ट करने के लिए लेश्यासिद्धान्त की विवेचना करेंगे। लेश्यासिद्धान्त हमें यह बताता है की यथार्थ से आदर्शों की ओर संक्रमण कैसे सम्भव है। अग्रीम क्रम में उत्तराध्ययनसूत्र के मनोविज्ञान का मुख्य प्रतिपाद्य ध्यान के स्वरूप को प्रकाशित करेंगे । संज्ञा प्राणी' की मूलप्रवृत्ति को संज्ञा कहा गया है। ये प्रवृत्तियां जन्मजात होती हैं । प्राणी इनके साथ ही जन्म लेता है, जन्म के बाद नहीं सीखता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि प्राणी के व्यवहार की प्रेरक या संचालक वृत्ति संज्ञा है। जैनागमों में संज्ञा को अनेक भेदों में विभाजित किया गया है। यह विभाजन हमें चतुर्विध, दशविध, पंचदशविध एवं षोडशविध संज्ञा के रूपों में उपलब्ध होता है । प्रवचनसारोद्धार में चतुर्विध और दशविध वर्गीकरण के साथ पंचदशविध वर्गीकरण भी उपलब्ध होता है।' १ प्रवचनसारोद्धार ९२३ -६२५ - (साध्वी हेमप्रभाश्री पृष्ठ ७८ - ८१) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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