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उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित मनोविज्ञान
यह सत्य है कि- उत्तराध्ययनसूत्र मूलतः धर्मदर्शन का ग्रन्थ है। यह हमें जीवन के आदर्शों या आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा देता है। धर्मदर्शन का कार्य जीवन के आदर्शों का निर्धारण कर उनकी उपलब्धि के मार्ग का निर्धारण करना है; जबकि मनोविज्ञान मानव प्रकृति का अध्ययन करता है। मनोविज्ञान तथ्यात्मक होता है। वह मानवीय प्रवृत्तियों की व्याख्या करता है, जबकि धर्मदर्शन आदर्शात्मक होता है, फिर भी हमें यह समझ लेना चाहिए कि आदर्शों का निर्धारण तथ्यों की उपेक्षा करके नहीं हो सकता । 'हमें क्या होना चाहिए' यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि 'हम क्या हैं' अथवा 'हमारी क्षमता क्या है । मनोतथ्यों अर्थात् मानव प्रकृति की अवहेलना करके धार्मिक आदर्शों का निर्धारण सम्भव नहीं है। जिस साध्य को उपलब्ध करने की क्षमता मानव में न हो उसे मानव जीवन का साध्य नहीं बनाया जा सकता । 'हमें क्या होना है, यह समझने के लिये यह जानना आवश्यक है कि हम क्या हैं और हमारे में उस आदर्श को आत्मसात् करने की क्षमतायें कितनी हैं ?
हम गहराई से विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तराध्ययनसूत्र का दर्शन मानव जीवन की यथार्थता और मानव की क्षमता की उपेक्षा करके नहीं चलता है । वस्तुतः धर्मदर्शन या साधना पद्धति का कार्य यथार्थ को आदर्शों से जोड़ना है। आदर्शों को यथार्थ जीवन में साकार करना है । अतः धर्मदर्शन और मनोविज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं। पुनश्च हम क्या हैं, और हमें क्या होना चाहिये, इन दोनों के सम्बन्धों की व्याख्या करना मनोविज्ञान का वास्तविक कार्य है।
मनुष्य वासना और विवेक का समन्वित रूप है और धार्मिक साधना का कार्य वासनाओं पर विवेक का अंकुश लगाना है। मानवजीवन की वासनायें, आकांक्षायें या इच्छायें क्या हैं, यह बताना मनोविज्ञान का काम है और उनको किस प्रकार से संयमित करके मानव जीवन के आदर्श को यथार्थ में परिणत किया जाय यह बताना धर्मदर्शन का कार्य है। उत्तराध्ययनसूत्र में हमें ऐसे अनेक सन्दर्भ उपलब्ध
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