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लोभ लोभ कषाय अत्यन्त दूषित मनोवृत्ति है। ज्ञानियों की दृष्टि में यह भवभ्रमण का मुख्य कारण तथा सारे पापों की जड़ है।
उत्तराध्ययनसूत्र के आठवें अध्ययन में लोभ कषाय की स्थिति एवं उससे मुक्ति की व्यापक चर्चा प्रस्तुत की गई है। इसमें कहा गया है कि जैसे जैसे लाभ होता जाता है वैसे वैसे लोभ बढ़ता जाता है। इसके नवम अध्ययन में यह कहा गया है कि व्यक्ति के पास सोने चांदी के असंख्य पर्वत भी हो जायें फिर भी आकांक्षायें तृप्त नहीं होती हैं।
- लोभ कषाय के प्रकार
क्रोध, मान एवं माया के समान लोभ कषाय के भी निम्न चार भेद किये जाते हैं - •
(७) अनन्तानुबन्धी लोभ – किरमची रंग के समान प्रयत्न करने पर भी जो दूर नहीं होता है ऐसा लोभ अनन्तानुबन्धी लोभ कहलाता है। ... (२) अप्रत्याख्यानी लोभ – गाड़ी के पहिये में लगे हुए खंजन के समान जो अतिकष्ट के बाद दूर हो, ऐसा लोभ अप्रत्याख्यानी है।
(३) प्रत्याख्यानी लोभ – दीपक के काजल के समान जो थोड़े से . :प्रयास के बाद दूर होता है वह प्रत्याख्यानी लोभ है।
(४) संज्वलन लोभ - हल्दी के रंग के समान सहज छूटने वाला लोभ संज्वलन लोभ है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो संयमित लोभ संज्वलन लोभ है।
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