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________________ होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रूप से प्रतीत नहीं होता है तो मैं गीता माता की गोद में चला जाता हूं। वहां मुझे कोई न कोई समाधान अवश्य मिल जाता है।' वास्तव में तनाव ग्रस्त बने मानव के लिये स्वाध्याय एक मानसिक औषध है; मार्गदर्शक है। स्वाध्याय के प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र के तीसवें अध्ययन 'तपोमार्ग - गति' में स्वाध्याय के निम्न पांच अंग बतलाये हैं 49 (१) वाचना ग्रन्थों का पठन-पाठन वाचना है। वाचना में अपने आप पढ़ना, दूसरे से पढ़ना और दूसरे को पढ़ाना तीनों का समावेश है। इस प्रकार पठन–पाठन वाचनां है; परावर्तना है; (२) प्रतिपृच्छना - पठित ग्रन्थ के अर्थबोध में सन्देह की निवृत्ति हेतु · या विषय के स्पष्टीकरण के लिए प्रश्न पूछना प्रतिपृच्छना है, (३) परावर्तना पठित विषय का पुनः आवर्तन या परायण करना अनुप्रेक्षा हैं; 1 (४) अनुप्रेक्षा ४८४ ४६ उत्तराध्ययनसूत्र - ३० / ३४ | - Jain Education International (५) धर्मकथा अध्ययन से प्राप्त ज्ञान को दूसरों को प्रदान करना अर्थात् धर्मोपदेश देना धर्मकथा है। - पठित विषय के सन्दर्भ में चिन्तन / मनन करना स्वाध्याय के इन पांचों अंगों का एक क्रम है। इनमें प्रथम स्थान वाचना का है। वाचना के पश्चात् पृच्छना सम्भव होती है, क्योंकि वह अधीत विषय के स्पष्टीकरण के लिए या उत्पन्न शंका के निवारण हेतु की जाती है; अतः उसका क्रम दूसरा है। तत्पश्चात् परावर्तना- उस विषय के स्थिरीकरण के लिये की जाती है। फिर अनुप्रेक्षा / चिन्तन का क्रम आता है। इससे व्यक्ति अध्ययन की गहराई में पहुंचता है एवं स्वत: अनुभूति के स्तर पर अर्थबोध की योग्यता उपलब्ध कर लेता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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