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स्पष्ट हो जाने पर ही व्यक्ति धर्मोपदेश का अधिकारी माना जाता है; अतः धर्मोपदेश का क्रम सबके पश्चात् रखा गया है।
स्वाध्याय से लाभ उत्तराध्ययनसूत्र के उन्तीसवें अध्ययन में स्वाध्याय से होने वाले लाभ का विवेचन किया गया है। प्रश्नोत्तर शैली में स्वाध्याय की प्रत्येक प्रक्रिया से होने वाले लाभ का क्रमशः वर्णन इस अध्ययन में किया गया है। इसमें प्रथम स्वाध्याय के सामान्य लाभ की चर्चा में बतलाया गया है कि स्वाध्याय से ज्ञानावरणीकर्म का क्षय होता है । आत्मा मिथ्याज्ञान से मुक्त होकर सम्यकज्ञान का उपार्जन करती है। इसके अग्रिम सूत्रों में क्रमशः स्वाध्याय की प्रत्येक अवस्था की उपयोगिता प्रदर्शित की गई है जो निम्न रूप में है
(१) वाचना से जीव कर्मों का क्षय करता है, श्रुत की उपेक्षा के दोष से मुक्त होता है। श्रुतदान का अधिकारी होता है। तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेने वाला होता है और संसार का अन्त करने वाला अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त करने वाला होता
है
(२) प्रतिपृच्छना से जीव सूत्र अर्थ के विषय में होने वाली कांक्षामोहनीय (संशय) का निराकरण करता है। कांक्षामोहनीय का अर्थ बृहवृत्तिकार ने अनभिग्रहिक मिथ्यात्व किया है।
(३) परार्वतना अर्थात् पठित पाठ के पुनः पुनः दोहराने से जीव का ज्ञान स्थिर अर्थात् सुरक्षित रहता है एवं जीव पदानुसारिता आदि व्यंजनलब्धि को प्राप्त करता है।
एक पद को सुनकर शेष पदों अर्थात् वाक्यार्थ की प्राप्ति हो जाय उस शक्ति का नाम पदानुसारितालब्धि है। इसी प्रकार एक व्यंजन (अक्षर) को सुनकर शेष व्यंजनों का अनुसरण करते हुए शब्दार्थ को प्राप्त करने वाली क्षमता का नाम व्यंजनलब्धि है।
(४) जीव अनुप्रेक्षा/तत्त्व चिन्तन से आयुष्यकर्म के अतिरिक्त शेष सातों कर्मों का पाश शिथिल करता है। इनकी दीर्घकालीन स्थिति अल्पकालीन होती है।
५० उत्तराध्ययनसूत्र - २६/१६ से २४ ।
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