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________________ ४८२ स्वाध्याय है। अपने विकारों, वासनाओं एवं अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्न ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय शब्द की द्वितीय व्याख्या सु + आ + अधि + ईण् के रूप में उपलब्ध होती है। इस दृष्टि से 'सुष्ठु – शोभन अध्यायः स्वाध्यायः' अर्थात् - सत्साहित्य का अध्ययन करना स्वाध्याय है। यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि प्रत्येक साहित्य या ग्रन्थ का अध्ययन स्वाध्याय की श्रेणी में नहीं आ सकता। वही साहित्य जो व्यक्ति को स्व-स्वभाव की ओर उन्मुख करे, स्व-वृत्तियों के विश्लेषण में सहायक बने; हेय, उपादेय, ज्ञेय का बोध कराये और श्रेय-प्रेय की सम्यक समझ दे सत्साहित्य की श्रेणी में आता है । उनका अध्ययन स्वाध्याय है। स्वाध्याय की दोनों व्याख्याओं का विश्लेषण करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतः या सत्साहित्य के माध्यम से आत्मदृष्टा बनना, आत्मानुभूति करना, अन्तर्चक्षु को उद्घाटित करना स्वाध्याय है। स्व अध्ययन की सार्थकता अथवा आत्म-सजगता के महत्त्व को स्थापित करते हुए आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है - 'जैसे अन्धे व्यक्ति के लिए करोड़ो दीपकों का प्रकाश व्यर्थ है किन्तु आंख वाले व्यक्ति के लिए एक दीपक के प्रकाश की भी सार्थकता है; उसी प्रकार अन्तःचक्षु प्राप्त अध्यात्मिक साधक के लिए स्वल्प अध्ययन भी लाभप्रद होता है; जबकि आत्मविमुख व्यक्ति के लिए विपुल साहित्य भी निरर्थक है। सद्ग्रन्थ रूपी साधन से आत्म-शुद्धि रूपी साध्य को उपलब्ध करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय की प्रथम व्याख्या जहां आत्मपरक है - अपने द्वारा अपने को जानना है वहीं दूसरी पराश्रित है अर्थात् - सत्साहित्य के माध्यम से अपने को जानना है। मूलतः स्वाध्याय का अर्थ स्वयं को ज्ञाता-दृष्टा भाव में रखना, राग-द्वेष से परे रहना है। स्वाध्याय का महत्त्व जैनपरम्परा में स्वाध्याय का विशिष्ट महत्त्व है। यह जैन साधना का प्राण है।) जैनपरम्परा के अनुसार तप के बारह भेद हैं; उनमें स्वाध्याय का स्थान आन्तरिक तप के अन्तर्गत है। तप क्या है, इसकी अनेक व्याख्यायें की गई हैं जैसे(जिससे तनावों का पलायन हो वह तप है)अथवा जो आत्मा को तत्काल पवित्र करे : 'सागर जैन विद्या भारती - भाग १, पृष्ठ ३८ । ४५ आवश्यकनियुक्ति, ६८ एवं ६६ - (नियुक्तिसंग्रह, पृष्ठ १०)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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