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________________ (१४) गुरू के समक्ष शिष्य किस प्रकार बैठे, इसे स्पष्ट करते हुए इसमें कहा गया है कि शिष्य को 42 - ४८ १ (१) गुरु के बराबर अर्थात् एक सीध में नहीं बैठना चाहिए: (२) गुरू के आगे नहीं बैठना चाहिये; (३) गुरू के ठीक पीछे भी नहीं बैठना चाहिये; गुरू के ठीक पीछे बैठने पर यदि गुरू को कुछ कहना होगा तो उन्हें परेशानी होगी; (४) गुरू के अति निकट सटकर अर्थात् गुरु के शरीर का स्पर्श होता हो ऐसें नहीं बैठना चाहिये; (५) गुरू के समक्ष पालकी लगाकर नहीं बैठना चाहिए; (६) दोनों हाथों से शरीर को बांधकर नहीं बैठना चाहिए; (७) पैरों को फैलाकर भी नहीं बैठना चाहिये; उत्तराध्ययनसूत्र में गुरूशिष्य के सम्बन्धों को सुरक्षित रखने के लिये इसका उल्लेख निम्न रूप में किया शिष्य के प्रति गुरु के क्या कर्तव्य हैं, गया है। 43 - (१) ज्ञानदान; (२) वात्सल्य; (३) समता और (४) संहिष्णुता १२. ४ स्वाध्याय का स्वरूप एवं महत्त्व स्वाध्याय मानव जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह तनाव मुक्ति का अमोघ उपाय भी है। सत्साहित्य का स्वाध्याय जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में सहायक होता है। स्वाध्याय का अर्थ + इण् स्वाध्याय शब्द की व्याख्या दो प्रकार से उपलब्ध होती है। स्व + अधि 'स्वस्य स्वस्मिन् वा अध्याय स्वाध्याय' अर्थात् - स्व का अध्ययन करना स्वाध्याय है । दूसरे शब्दों में आत्मा के स्वरूप का अध्ययन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय स्वयं का अध्ययन है; अपने आपको देखना, या अपने आपको जानना, ४२ उत्तराध्ययनसूत्र - १ / १८ एवं १६ । ४३ उत्तराध्ययनसूत्र - १/२३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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