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१२. ३ गुरूशिष्य सम्बन्ध
गुरू-शिष्य का सम्बन्ध एक आध्यात्मिक सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध आत्मविकास एवं आत्मकल्याण में अत्यन्त सहायक होता है। शिष्य के जीवन में गुरू का अद्वितीय स्थान होता है।
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व्यक्ति जिसके आश्रय में रहता है उसके साथ सामंजस्य एवं सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों का होना अति आवश्यक है।) सम्बन्धों की इस गरिमा को अखण्डित रखने के लिये व्यक्ति को कई प्रकार के कर्त्तव्यों का निर्वाह करना पड़ता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में गुरूशिष्य के सम्बन्धों को सुरक्षित रखने के अनेक उपाय निर्देशित किये गये हैं। इसमें शिष्य गुरू के साथ किस प्रकार का व्यवहार करे, इसका उल्लेख निम्न रूप से उपलब्ध होता है" .
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(१) गुरु की आज्ञा का पालन करना;
(२) गुरू के सान्निध्य में रहना;
(३) गुरू के इंगित ( निर्देश) एवं आकार अर्थात् मनोभावों को जानना;
(४) गुरू के पास प्रशान्त भाव से रहना
(५) गुरू के समक्ष अधिक नहीं बोलना;
(६) गुरू के द्वारा अनुशासित होने पर क्रुद्ध नहीं होना;
(७) गुरू से कुछ भी नहीं छुपाना । अपराध हो जाने पर गुरू समक्ष तुरंत प्रकट कर देना;
(८) उत्तम प्रकार के घोड़े के समान संकेत मात्र से गुरू के आशय को समझना;
(६) लोगों के समक्ष या एकान्त में, वाणी या वर्तन द्वारा कभी भी गुरू के प्रतिकूल आचरण नहीं करना;
(१०) गुरू के बुलाने पर शीघ्र ही गुरू के समक्ष उपस्थित होना;
(११) गुरू के कठोर अनुशासन को भी प्रिय एवं हितकर मानना;
( १२ ) स्वयं के द्वारा अपराध हो जाने पर यदि आचार्य अप्रसन्न हो जायें तो उन्हें विनयपूर्वक प्रीतिकर वचनों से प्रसन्न करने का प्रयास करना; (१३) गुरू के कुछ पूछने पर मौन न रहना ।
४१ उत्तराध्ययनसूत्र - १/२ से १४, २५, २८ एवं २६ |
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