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जिस प्रकार अनाज की टोकरी छोड़कर शूकर विष्टा खाता है वैसे ही. दुःशील शिष्य पशुवत् शील अर्थात् गुरू द्वारा मार्गदर्शित विनयाचार छोड़कर कुशील में आनन्द मानता है।
___ अविनीत की दुर्दशा का निरूपण करते हुए दशवैकालिकसूत्र में भी कहा गया है कि अविनीतात्मा संसारस्रोत में वैसे ही प्रवाहित होती रहती है, जैसे जल के प्रबल स्रोत में पड़ा हुआ काष्ठ।"
उत्तराध्ययनसूत्र में अविनीत को इन घृणित उपमाओं से उपमित कर . उसे सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने का सुन्दर मार्ग दर्शाया है।
निष्कर्षतः अविनीत की संसार में कहीं भी सराहना नहीं हो सकती। कहा गया है कि :- ‘अविनीत व्यक्ति अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने के समान अपना अहित करता है। इसे दशवैकालिकसूत्र में सुन्दर ढंग से दर्शाया गया है -
_ 'जो (साधक) गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरूदेव के समीप विनय नहीं सीखता तो उसके अहंकारादि दुर्गुण उसके ज्ञानादि वैभव के विनाश का कारण बन जाते हैं, जैसे बांस का फल उसी के विनाश के लिये होता है।*
विनय धर्म का पालन करने की प्रेरणा देते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि अपना हित चाहने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह कुतिया एवं सूअर की दुःस्थिति से प्रेरित होकर अपने में विनय गुण को प्रतिष्ठित करे। .
कुतिया एवं सूअर के विगर्हित आचरण ही उनकी दुर्गति के कारण होते हैं। कुत्सित आचरण के हीन कुल का विचार करके साधुपुरूष दुराचार से पराङ्मुख होकर सदाचारयुक्त विनयधर्म में अपने आपको स्थिर करे। विनय को धारण करने वाला कहीं से भी प्रताड़ित नहीं होता है । वह सर्वत्र सम्मानित होता है।10
इस प्रकार विनयाचार की समीचीन एवं सटीक शिक्षा प्रणाली को व्यक्ति सद्गुणसम्पन्न एवं दुर्गुणविपन्न बनाने की अद्भुत कला है।
३६ उत्तराध्ययनसूत्र - १/५ । ३७ दशवकालिक - ६/२/३ । ३८ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/१/१। ३६ उत्तराध्ययनसूत्र - १/६ । ४० उत्तराध्ययनसूत्र - १/७ ।
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