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के मनोगत अभिप्राय को समझे और गुरू के साथ योग्य सद्व्यवहार करे । विनीत शिष्य की व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है :
'जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, गुरू के सान्निध्य में रहता है, गुरू के इंगित एवं आकार अर्थात् संकेत और मनोभावों को जानता है, वह विनीत कहलाता है।' 34
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गुरू ज्ञान के सागर होते हैं। उनकी आज्ञा एवं निर्देश का पालन करके ज्ञान–गंगा में अवगाहन का आनन्द लेना चाहिये । गुरू ज्ञानी एवं अनुभवी होते हैं, उनकी आज्ञा और उनका मार्गदर्शन शिष्य की सफलता का आधार होता है।
(गुरू की आज्ञा एवं निर्देश के अनुरूप आचरण करना शिष्य की प्रथम विशेषता है।]
विनीत शिष्य की द्वितीय विशेषता है
'गुरूणमुववायकारए' अर्थात् गुरु के सान्निध्य में रहना । ऐसे स्थान पर बैठना, जहां गुरू की दृष्टि पड़े गुरू की पावन तेजोमयी दृष्टि से शिष्य के तन, मन एवं वचन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं और गुरू के तप-त्याग के दिव्यसाम्राज्य से शिष्य के विषय कषाय और ईर्ष्या के तूफान शान्त हो जाते हैं। गुरू के सान्निध्य में निवास करना ज्ञान जगत में निवास करना है ।
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शिष्य का तीसरा गुण है 'इंगियागारसंपन्न' । विनीत शिष्य गुरू हावभाव एवं मनोभावों को जानने वाला होता है । इंगित का अर्थ है शरीर की सूक्ष्मचेष्टा, जैसे- किसी कार्य की विधि या निषेध के लिए सिर हिलाना, आंख से इशारा करना आदि । आकार शरीर की स्थूल चेष्टा जैसे उठने के लिए ..आसन की पकड़ ढीली करना, घड़ी की ओर देखना या जम्भाई लेना आदि।
३४ 'आणानिदेशकरे, गुरूणमुववायकारए । इंगियागारसम्पन्ने, से विनीए त्ति वुच्चई ।।'
३५ उत्तराध्ययनसूत्र - १/४ |
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विनय के विधि एवं निषेध दोनों मार्गों पर प्रकाश डालते हुए • उत्तराध्ययनसूत्र में विनीत के साथ साथ अविनीत की परिभाषा का भी प्रकाशन किया गया है। अविनीत का व्यवहार विनीत के व्यवहार से विपरीत होता है अर्थात् वह गुरू के प्रतिकूल प्रवर्तन करता है। उनके सान्निध्य में नहीं रहता है। (अविनीत शीलभ्रष्ट होकर सड़े हुए कान वाली कुतिया की तरह सब तरफ से तिरस्कार
प्राप्त करता है। 36 )
उत्तराध्ययन सूत्र - १/२ ।
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