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________________ ४७७ उत्तराध्ययनसूत्र के प्रथम अध्ययन की प्रारम्भिक गाथाओं में विनय शब्द अनुशासन के रूप में प्रयुक्त हुआ है । मानव समाज में अनुशासन का बड़ा महत्त्व है। समाज और विधि-विधान/ अनुशासन दो नहीं हैं। जहां समाज है वहां अनुशासन है; जहां संघ है वहां अनुशासन है। संघ और अनुशासन को कभी पृथक नहीं किया जा सकता; अनुशासित संघ ही समाज कहलाता है। __अनुशासन का अभिप्राय यहां दासता, दीनता या गुरू की गुलामी नहीं है, स्वार्थसिद्धि के लिए कोई चाल नहीं है, सामाजिक व्यवस्था मात्र भी नहीं है और न वह कोई आरोपित औपचारिकता है। अपितु अनुशासन पवित्र गुणों के प्रति सहज प्रमोदभाव का प्रतिफलन है। यह प्रमोद भाव ही विनय है, जो गुरू. एवं शिष्य के मध्य सेतु का काम करता है। इसके माध्यम से गुरू अपने शिष्य को ज्ञान से लाभान्वित करते हैं। अनुशासन की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है - किं स्रोतः किं स्वरूपं च, किं फलं चानुशासनं । स्वतन्त्रता भवेत् स्रोतः, परस्वातंत्र्यरक्षिका ।। इच्छारोधः स्वरूपं स्यात्, प्रसादः समता फलम्। सुस्थिरो जायते लोको, विद्यमानेऽनुशासने ।। अर्थात् दूसरों की स्वतन्त्रता का संरक्षण करने वाली स्वतन्त्रता अनुशासन का स्रोत है। अनुशासन का स्वरूप है - इच्छा का निरोध। उसका फल है प्रसाद और समता। अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति सुस्थिर बन जाता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता चाहता है किन्तु व्यक्ति स्वतन्त्र तभी हो सकता है जब वह दूसरे की स्वतन्त्रता में बाधक न बने। दूसरे की स्वतन्त्रता को संरक्षण देने वाली अपनी स्वतन्त्रता अनुशासन का आधार बनती है। इस परापेक्षी स्वतन्त्रता से अनुशासन का स्रोत फूटता है। अनुशासन परतन्त्र बनने एवं बनाने के लिए नहीं; किन्तु दूसरों के स्वतन्त्रताधिकार को सुरक्षित रखने के लिए है। दूसरे व्यक्ति की स्वतन्त्रता का सम्मान ही अनुशासन का उद्गम स्थल है।) गुरू एक दक्षशिल्पी की भांति होता है। जैसे शिल्पी पत्थर पर चोट करता है किन्तु उसका लक्ष्य पत्थर को तोड़ना नहीं वरन् उसे एक सुन्दर रूप देना होता है; उसी प्रकार गुरू का अनुशासन भी शिष्य की अन्तरात्मा में छिपे हुए आध्यात्मिक सौन्दर्य को प्रकट करने के लिए होता है। शिष्य का कर्तव्य है कि गुरू ३३ ‘महावीर का पुनर्जन्म' - पृष्ठ ३ - युवाचार्य महाप्रज्ञ। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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