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का खण्डन, आर्द्रकुमार का दार्शनिक संवाद तथा गौतम स्वामी द्वारा नालंदा में दिये गये उपदेशों का वर्णन है ।
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सूत्रकृतांग की दार्शनिक चर्चायें महत्त्वपूर्ण हैं। इससे उस युग प्रचलित विभिन्न दार्शनिक मत मतान्तरों की जानकारी मिलती है।
३. स्थानांग
तीसरा अंग आगम स्थानांग' है। स्थान शब्द अनेकार्थी है। विद्वानों की मान्यता है कि इसमें एक स्थान से लेकर दस स्थान तक जीव और पुद्गल की विविध अवस्थाओं का वर्णन है। अतः इसका नाम स्थानांग रखा गया है।
स्थानांग में संग्रहनय की अपेक्षा से जहां जीव में एकत्व का प्रतिपादन किया गया है, वहां दूसरी ओर व्यवहारनय की अपेक्षा से उसमें अनेकत्व का भी निरूपण हुआ है। संग्रहनय के अनुसार चेतना गुण की अपेक्षा से जीव एक है, परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से जीवों के अनेक भेद होते हैं। जैसे ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग अथवा सिद्ध या संसारी की अपेक्षा से उसके दो भेद किये गये हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अपेक्षा से जीवों के तीन भेद तथा चार गतियों में भ्रमण की अपेक्षा से चार भेद भी किये गये हैं। इसी प्रकार पांच इन्द्रियों की अपेक्षा से जीव पांच प्रकार के, जीवनिकाय तथा लेश्याओं की अपेक्षा से जीव छः प्रकार के भी होतें हैं। इसी क्रम में यहां जीवों को दस भागों में विभक्त किया गया है।
इसके प्रत्येक अध्ययन में अध्ययन की संख्या के अनुसार वस्तुओं का वर्णन भी किया गया है जैसे प्रथम अध्ययन में एक लोक, एक अलोक आदि । जिससे एक संख्या वाली वस्तु कौन कौन है, दो संख्या वाली वस्तु कौन कौन है, इसका बोध होता है ।
हेतुवाद का निरूपण इस आगम की मुख्य विशेषता है।
४. समवायांग
समवायांग द्वादशांगी का चतुर्थ अंग है। आचार्य अभयदेवसूरि के अनुसार प्रस्तुत आगम में जीव, अजीव आदि पदार्थों का समवतार या विवेचन है। अतः इस आगम का नाम समवाय या समवाओ है।
समवायांग का वर्तमान में उपलब्ध परिमाण ग्रन्थाग्र १६६७ है। इसमें जीवादि समस्त तत्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की
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