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महाव्रतों की २५ भावनाओं को सांगोपांग व्याख्यायित कर जैन आचार की विशिष्टता को रेखांकित किया गया है।
. इस प्रकार इस आगम का प्रथम श्रुतस्कंध भाषा शैली विषयवस्तु आदि की दृष्टि से प्रभु महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। इसकी शैली उपनिषदों की शैली से मिलती है। इसकी प्राचीनता असंदिग्ध है। यद्यपि द्वितीय श्रुतस्कंध परवर्ती है फिर भी विद्वानों के अनुसार इसका काल भी ई. पू. प्रथम या दूसरी शती से परवर्ती नहीं हो सकता। २. सूत्रकृतांग
सूत्रकृतांग द्वितीय अंग आगम है। इसका वर्तमान में जो संस्करण उपलब्ध है, उसमें दो श्रुतस्कंध है - प्रथम श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन हैं और द्वितीय में सात अध्ययन हैं।
जो सूचक होता है उसे सूत्र कहा गया है। इस आगम में सूचनात्मक तत्त्व की प्रमुखता है। अतः इसका नाम सूत्रकृत है।
इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में बन्ध के कारण की चर्चा करते हुए विभिन्न दार्शनिक मतों की चर्चा की गई है। दूसरा अध्ययन मुख्यतः वैराग्योत्पादक उपदेशों से युक्त है। तृतीय अध्ययन में अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों की तथा चतुर्थ में स्त्री परीषह की चर्चा की गई है। पांचवें अध्ययन में नरक के दुखों का वर्णन है; छठे अध्ययन में भगवान महावीर की स्तुति की गई है (प्राकृत जैन-साहित्य में यह सबसे प्राचीन स्तुति है)। सातवें अध्ययन में चरित्रहीन व्यक्ति की दुर्दशा व आठवें अध्ययन में शुभ एवं अशुभ के स्वरूप का विवेचन है। नवें, दशवें एवं ग्यारहवें अध्ययन में क्रमशः धर्म मार्ग में स्थिरता, समाधि एवं मुक्ति के मार्ग का विवेचन किया गया है। बारहवें अध्ययन में क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी एवं अज्ञानवादी मतों का विवेचन है। तेरहवें, चौदहवें, पंद्रहवें में क्रमशः मुख्य रूप से साधु के कर्तव्य, परिग्रह, विवेक की दुर्लभता, संयम के सुपरिणाम आदि का वर्णन है । सोलहवें अध्ययन में श्रमण का सम्यक् स्वरूप बताया गया है।
द्वितीय श्रुतस्कंध के अध्ययनों में विभिन्न सम्प्रदायों के भिक्षुओं के आचार, कर्मबंध के त्रयोदश स्थान, निर्दोष भिक्षा की विधि, मूलगुण एवं उत्तर गुणों की विवेचना हुई है। साथ ही इस श्रुतस्कन्ध के अन्त में लोकमूढ़ मान्यताओं
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