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है। इन बारह अंगो में जो प्रविष्ट हैं, अंगत्वेन अवस्थित हैं, वे आगम श्रुतपुरूष के अंग है। अतः आचारांग आदि बारह आगमों को अंग आगम कहा गया है। अब हम संक्षिप्त रूप से इनकी विषयवस्तु की चर्चा करेंगें - १. आचारांग
___अंग आगमों में आचारांग का स्थान प्रथम है। इसका नाम इतना अन्वर्थक है कि नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह आचार संबन्धी ग्रन्थ है। उपलब्ध आचारांग के दो श्रुतस्कंध हैं। विद्वानों की मान्यता है कि दूसरा श्रुतस्कंध चूलिकारूप है, जो प्रथम श्रुतस्कंध के साथ परवर्तीकाल में जोड़ दिया गया।
प्रथम श्रुतस्कंध के ६ अध्ययन हैं पर इसका. ७वां अध्ययन वर्तमान में अनुपलब्ध है। दूसरे श्रुतस्कंध के १५ अध्ययन हैं जो प्रथम श्रुतस्कंध के अध्यायों की व्याख्या मात्र हैं।
___ आचारांगसूत्र का प्रारम्भ आत्मजिज्ञासा की भावना से होता है। तदनन्तर इसमें जैनाचार के मूलभूत सिद्धान्त, षड्जीवनिकाय की यतना का विस्तृत वर्णन है। मुख्य विषय के साथ उसमें लोक स्वरूप, सांसारिक संबन्धों की अशरणता दर्शाते हुए राग, द्वेष एवं कषाय विमुक्ति की सचोट प्रेरणा भी दी गई
.. प्रथम श्रुतस्कंध के अन्य अध्ययनों में मुनि आचार के निरूपण के साथ साथ आचार पालन के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले समाधिमरण की भी चर्चा की गई है। प्रथम श्रुतस्कंध के अन्तिम (नौवें) अध्ययन में, जो उपधानश्रुत के नाम से जाना जाता है, भगवान महावीर के साधनामय जीवन का वर्णन है।
द्वितीय श्रुतस्कंध में साध्वाचार का विस्तृत विवेचन किया है। मुनियों की भिक्षाचर्या, उनके ठहरने के स्थान अर्थात् वसति, वस्त्र पात्र आदि का स्वरूप एवं उनके ग्रहण की विधि क्या है, इत्यादि विषयों का बहुत ही गंभीर विवेचन इसमें उपलब्ध होता है। इसके अन्त में भगवान महावीर के जीवन का प्रथम श्रुतस्कंध की अपेक्षा अति विशद वर्णन दिया गया है। साथ ही इस अध्ययन में पांच .
१२. 'इह पुरुषस्य बादश अंगानि भवन्ति तथथा द्वौ पादौ, ये जंधे, दे ऊसणी, दे गात्राछे, बो बाहू, ग्रीवा शिरश्च एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याचारादीनि बादशांगानि क्रमेण वेदितव्यानि तथा चोक्तम् -
'पायदुर्ग जंघोस गायदुगद्धं तु दो य बाह्य
गीवा सिरं च पुरिसो बारस अंगेसु च पविट्ठो' श्रुतपुरुषस्यांगेषु प्रविष्टमंगप्रविष्टम् अंगभावेन व्यवस्थिते श्रुतभेदे' - - अभिधानराजेन्द्रकोश प्रथमभाग पृ. ३८ ।
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