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________________ 9.. इस प्रकार उपलब्ध साक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि पाटलीपुत्रीय वाचना के समय एकादश अंग सुव्यवस्थित हुए थे । बारहवें दृष्टिवाद जिसमें अन्य दर्शनों एवं महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य समाहित था, उसका पूर्ण रूप से संकलन नहीं किया जा सका। कारण वहां चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं थी। आगे बाह्य आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ जैसे प्रज्ञापना, आचारदशा, नंदी, अनुयोगद्वार आदि परवर्ती आचार्यों की कृति होने से वाचना में सम्मिलित नहीं किये गये होंगे। यद्यपि दशवैकालिक, आवश्यक, उत्तराध्ययनसूत्र, आचारदशा, बृहत्कल्प व्यवहार आदि ग्रन्थ पाटलीपुत्र की वाचना के पूर्व के हैं किन्तु इस वाचना. में इनका क्या किया गया – यह जानकारी प्राप्त नहीं होती है । हो सकता है कि सभी साधु साध्वियों के लिये उनका स्वाध्याय नियमित व आवश्यक होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो। जहां तक उत्तराध्ययनसूत्र का प्रश्न है, कुछ विद्वानों के अनुसार पूर्व में यह प्रश्नव्याकरणदशा का ही भाग था। अतः अंग आगमों की वाचना में इसकी भी वाचना हुई होगी । , अंतिम वाचना में जो ग्रन्थ संकलित एवं पुस्तकाकार (लिपिबद्ध) किये गये, वे ही आगे सुरक्षित रह सके। ज्ञातव्य है कि अंतिम वल्लभी वाचना के आगम दक्षिण पश्चिम भारत की सचेल परम्परा को ही मान्य रहे। आगे हम इन आगमग्रन्थों की विषयवस्तु का संक्षिप्त परिचय देंगे। १४ जैन आगमों की विषयवस्तु अंग आगम आचारांग आदि अंग आगम कहलाते हैं। भगवान के उपदेश के आधार पर गणधर भगवन्तों ने जिन शास्त्रों की रचना की, वे अंग आगम कहलाते हैं अंग आगम की पुरूष के रूप में भी कल्पना की गई है। पुरूष के बारह अंगों (पादद्वय, जंघाद्वय, उरूद्वय, गात्रद्वय-देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग, बाहुद्वय, ग्रीवा तथा मस्तक) के साथ बारह आगम का सम्बन्ध स्थापित किया गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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