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________________ होता रहा, यथा शिष्य ने गुरू मुख से अधीत किया और स्मृति कोश में संरक्षित कर लिया। पुनः शिष्य ने अपने शिष्य को उसी प्रकार अधीत करवाया । स्मृति की भी एक सीमा होती है। कालान्तर में शनैः शनैः विशाल ज्ञान राशि को धारण करने वाले शिष्य प्रशिष्यों की कमी होती गई और वीर निर्वाण के ८०० वर्ष पश्चात् पुनः बारह वर्षों का अकाल पड़ा। नंदीचूर्णि में इसका उल्लेख है कि अकाल में अनेक मेधावी श्रुतज्ञों का देहान्त हो गया। इसमें दो मान्यताएं हैं। प्रथम मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में उपस्थित मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिक सूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया । अन्य कुछ विद्वानों का मंतव्य है कि इस काल में सूत्र नष्ट नहीं हुए थे किन्तु अनुयोगधर दिवंगत हो गये थे। अतः एक मात्र जीवित अनुयोगधर आर्य स्कदिल द्वारा अनुयोग का पुनः प्रवर्तन किया गया। अचेल परम्परा में यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति प्रकरण में इस वाचना का मथुरागम के रूप में उल्लेख भी किया है । . चतुर्थ वाचना . चतुर्थ वाचना भी तृतीय वाचना के समकालीन वीरनिर्वाण से ८२७ से ८४० के पश्चात् हुई थी। जिस समय उत्तरपूर्व और मध्य में विचरण करने वाले मुनिगण मथुरा में एकत्रित हुये थे, उसी समय दक्षिण पश्चिम अर्थात् राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में विचरण करने वाले मुनिगण वल्लभीपुर (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में एकत्रित हुए। अतः इसे नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं। इस वाचना के उल्लेख आगमिक व्याख्या-साहित्य में उपलब्ध हैं। पांचवी वाचना वीर निर्वाण के ६०० या ६६३ वर्ष पश्चात् ई. सन् पांचवी शती के उत्तरार्द्ध में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमणसंघ वल्लभी में एकत्रित हुआ। यह वाचना आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना के लगभग १५० वर्ष पश्चात् हुई। इस वाचना में मुख्यतः आगमों को पुस्तकाकार करने का कार्य किया गया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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