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'विलयं नयति कर्ममलं अनेन इति विनयः' - जो कर्ममल को विलय की ओर ले जाये अर्थात् उनका नाश कर दे वह विनय हैं।
'अनाशातना बहुमानकरणं च विनयः' - अशातना नहीं करना एवं बहुमान करना विनय है।
इस प्रकार पूर्वोक्त व्याख्याओं से स्पष्ट होता है कि जैनवाङ्मय' मैं 'विनय' शब्द आचार के विविध रूपों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सामान्यतः विनय शब्द नम्रता का सूचक माना गया है, किन्तु जैनागमों में प्रयुक्त विनय शब्द नम्रता तक ही सीमित नहीं है वरन् वह आचार व्यवहार के व्यापक अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ. है। यद्यपि नम्रभाव भी आचार की ही एक विधि है पर यह विनय का प्रारम्भ बिन्दु है। इसकी परिणति तो मोक्ष मार्ग की साधना में है। इसे स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित विनीत आत्मा या तो शाश्वत् सिद्धि को प्राप्त करती है या अल्पकर्म वाला महाऋद्धि सम्पन्न देव होता है।
विनय शब्द आचार धर्म का प्रतिपादक है। यह तथ्य ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र द्वारा भी समर्थित है। इसमें सुदर्शनसेठ थावच्चापुत्र से पूछता है : 'भन्ते ! आपके धर्म का मूल क्या है ?' उत्तर में थावच्चापुत्र ने कहा कि धर्म का मूल विनय है और वह दो प्रकार की है - आगारविनय और अनगारविनय । इसमें बारहव्रत और ग्यारह प्रतिमा आगारविनय है तथा पंचमहाव्रत, छठा रात्रि भोजनत्यागवत, अठारह पापों का विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और बारह भिक्षु प्रतिमायें यह अनगारविनय है।
___बौद्धसाहित्य में भी विनय शब्द संघीयव्यवस्था, आचारनियम एवं अनुशासन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका सबल साक्ष्य यह है कि बौद्धभिक्षुओं के आचारनियमों के विवेचन करने वाले ग्रन्थ को विनयपिटक कहा गया है।
२५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र २० २६ उत्तराध्ययनसूत्र - १/४८ |
- (शान्त्याचार्य)।
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