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अनित्यादि बारह भावनाएं (अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक एवं बोधि दुर्लभ) | 21
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आचार्य के ३६ गुण निम्न रूप में भी उपलब्ध होते हैं - पांचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों को धारण करने वाले, चार कषायों का त्याग करने वाले, पंचमहाव्रत धारी, पंचाचार के पालक, एवं पंच समिति व तीन गुप्ति के धारक इस प्रकार ये ५ + ६ + ४ + ५ + ५ + ५ + ३ = ३६ छत्तीस गुण आचार्य के हैं। 22
शिक्षा और विनय
शिक्षा की विनय के साथ अभिन्न मित्रता है। विनय के अभाव में ज्ञान एवं ज्ञान के अभाव में विनय की कल्पना आकाशकुसुमवत् निरर्थक है। जो विनीत होता है वही शिक्षित हो सकता है। अविनीत को शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती। अतः उत्तराध्ययनसूत्र का प्रारम्भ ही विनय की शिक्षा से होता है।
१२.२ विनयाचार
जैनधर्म में विनय गुण की विवेचना विविध दृष्टियों से की गई है। उसके अनुसार 'विनय मूलो धम्मो अर्थात् धर्म का मूल विनय कहा गया है। व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में विनय गुण का महत्त्वपूर्ण स्थान है।।
विनय का स्वरूप
विनय शब्द वि+नय इन दो शब्दों के संयोग से बना है। यहां 'वि' शब्द का अर्थ विशिष्ट है तथा 'नय' शब्द के सहवर्तन, जीवनशैली, नीति, सिद्धान्त आदि अनेक अर्थ दिये गये हैं। इस प्रकार प्रस्तुत प्रसंग में विनय से तात्पर्य साथ-साथ जीवन जीने की कला है। यह पारस्परिक सद्भाव एवं वरिष्ठजनों के प्रति आदरपूर्ण व्यवहार का सूचक है।
२१ सम्बोध सप्ततिका पृष्ठ १६६ - २२ जैनधर्म प्रवेशिका - पृष्ठ १६६
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- (साध्वी हेमप्रभा श्रीजी) ।
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