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________________ शारीरिक विकास जैन शिक्षापद्धति केवल बौद्धिक विकास तक ही सीमित नहीं है वरन् वह जीवन के समग्र विकास एवं स्वास्थ्य से भी सम्बन्धित है। शारीरिक विकास में आहार और विवेक का महत्त्वपूर्ण योगदान है। विज्ञान की मान्यता है कि व्यक्ति जैसा आहार करता है वैसे ही उसके शारीरिक रसायन बनते हैं। शारीरिक रसायन यदि सन्तुलित न हो तो व्यक्ति का बौद्धिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास कुण्ठित हो जाता है। शारीरिक रसायनों का विकास सन्तुलित हो इस हेतु तप- साधना आवश्यक है। उत्तराध्ययनसूत्र में बारह प्रकार के तप के अन्तर्गत अनशन और उणोदरी तपसाधना का उल्लेख मिलता है जो शारीरिक रसायनों को सन्तुलित बनाये रखने में अत्यन्त सहायक है। (शारीरिक रसायनों का विकास सन्तुलित हो इस हेतु आहार-1 - विवेक आवश्यक है विद्यार्थी जीवन वैदिक संस्कृति के अनुसार विद्यार्थी जीवन का प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता है। महर्षि पाणिनि के अनुसार उपनयन का अर्थ- 'शिक्षा ग्रहणं हेतु आचार्य के समीप ले जाना है । " अध्ययनकाल - ४६७ वेदों के अनुसार १२ वर्ष की अवस्था से अध्ययन का प्रारम्भ होता था, किन्तु जैनपरम्परा के अनुसार सामान्य शिक्षा के लिए ८ वर्ष की आयु उचित मानी गई थी और व्यक्ति सम्पूर्ण ७२ कलाओं का पारंगत होने तक अध्ययन करता था। 2 12 आध्यात्मिक शिक्षा के लिए भी न्यूनतम आयु तो यही थी, किन्तु व्यक्ति जब भी चाहे इस आध्यात्मिक शिक्षा को प्राप्त कर सकता था। बौद्धसंस्कृति में किसी भी अवस्था में गृहस्थ अपने कुटुम्ब का त्याग कर बौद्धधर्म- संघ की शरण में विद्याध्ययन कर सकता था। ११ उद्धृत् – 'जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव व्यक्तित्व का विकास - पृष्ठ २२४ । ' १२ ज्ञाताधर्मकथा - १/२४ Jain Education International - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड ३, पृष्ठ १०) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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