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(२) मानसिक विकास
व्यक्तित्व निर्माण का दूसरा घटक है - मानसिक विकास । व्यक्ति के जीवन में अनेक समस्यायें आती हैं। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में उसे निर्णय लेने होते हैं। इस निर्णय की सामर्थ्य उसके ज्ञान के विकास पर आधारित होती है। समस्याओं को समझने और उनके सुलझाने की शक्ति मानसिक विकास से ही प्राप्त होती है। अतः मानसिक सामर्थ्य को विकसित करना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है । मानसिक विकास और मन को साधने की कला का चित्रण उत्तराध्ययनसूत्र में अति सूक्ष्मता से किया गया है। उस के तेवीसवें अध्ययन में मन को नियमित करने की विधि दी गई है।
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(३) भावात्मकविकास
(शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य भावात्मक विकास है। जिसका अर्थ है- दायित्वबोध या कर्तव्यबोध । भावात्मक विकास की अधिकांश समस्यायें एवं अव्यवस्थायें दायित्व बोध एवं दायित्व निर्वाह के अभाव में ही उत्पन्न होती हैं। अतः ( दायित्व या कर्तव्य बोध की शिक्षा हर मानव के लिये अनिवार्य है।
उत्तराध्ययनसूत्र में बहुश्रुत की तुलना उस बैल से की गई है, जो गृहीत भार को बीच में नहीं डालता, अपितु उसे लक्ष्य तक पहुंचा देता है।" बहुश्रुत को धुरीण कहा गया है। दायित्त्व बोध और दायित्त्व का निर्वाह जीवन के आवश्यक : तत्त्व हैं। लक्ष्य के प्रति स्पष्टता ही व्यक्ति के दायित्त्वनिर्वाह का आधार है और भावात्मक शिक्षा का कार्य जीवन के लक्ष्यों को स्पष्ट करना है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक स्थानों पर भावात्मक विकास की शिक्षा दी गई है। जैसे अहंकार पर विजय प्राप्त करने के लिए विनयभाव और क्रोध पर नियन्त्रण के लिये क्षमाभाव का विकास करना आवश्यक है। इसी प्रकार माया या कपट का प्रतिषेध करने के लिए ऋजुता के भाव का और लोभ पर विजय पाने हेतु सन्तोष के भाव का विकास करना होता है। विनम्रता, क्षमा आदि मनोभाव, मनोविकारों को जीतने के सफल साधन हैं। भावात्मक विकास के लिए जीवन में सद्गुणों को अपनाना आवश्यक हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र - २३ / ५५ । १० उत्तराध्ययनसूत्र - ११/१६ ।
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