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________________ ४६५ जीवनदृष्टि सम्यक् नहीं हो सकती। अतः जैन शिक्षा का उद्देश्य इन तीव्रतम वासनाओं पर विजय प्राप्त कर सम्यकदृष्टि को उपलब्ध करना है। (३) व्यक्ति में अपनी आदतों को बदलने की क्षमता है। जैसे भूल प्रत्येक प्राणी कर सकता है, परन्तु भूल को सुधारने की क्षमता सिर्फ मानव में ही है। व्यक्ति स्वयं की भूल का परिष्कार उसके प्रति सजग (अप्रमत्त) होकर कर सकता है अतः उत्तराध्ययनसूत्र में अप्रमत्त रहने की शिक्षा कदम-कदम पर दी गई है। दसवें : अध्ययन की तो प्रत्येक गाथा की समाप्ति इसी उद्बोधन से की गई है: 'हे गौतम क्षणमात्र भी प्रमाद न कर (समयं गोयम मा पमायए)।' यद्यपि यहां सम्बोधन केवल गौतम को है पर प्रतिबोध सभी के लिए है। यह अन्तर्मन के जागरण का महान् उद्घोष है। इस प्रकार सजगता को उपलब्ध करना भी शिक्षा का लक्ष्य है। (४) संयम में शक्ति का प्रयोग- शक्ति प्रत्येक प्राणी में है, किन्तु वह उसका उपयोग वासनाओं के पोषण में ही अधिक करता है। जैन शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य है कि व्यक्ति अपनी आत्मशक्ति को संयम के क्षेत्र में नियोजित करे। (५) शिक्षा के माध्यम से मानव का बौद्धिक, मानसिक, भावात्मक एवं शारीरिक विकास भी होता हैं। प्रत्येक सफलता का कोई न कोई सोपान होता है। मन्जिल/गन्तव्य के लिये मार्ग या सीढ़ियां अनिवार्य हैं। अतः आत्मविकास को उपलब्ध करने का भी एक क्रम है। (बौद्धिकविकास, मानसिकविकास एवं भावात्मकविकास की प्रक्रियाओं से गुजर कर ही व्यक्ति आत्मिकविकास कर सकता है। बौद्धिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास के स्वरूप एवं उपयोगिता पर संक्षेपतः विचार करना यहां प्रासंगिक होगा। व्यक्तिली (१) बौद्धिक विकास व्यक्तित्व निर्माण में बौद्धिक विकास आवश्यक है । बौद्धिक विकास का अर्थ अपनी ज्ञानात्मकशक्ति का विकास करना है। ज्ञानात्मक विकास में श्रुत का अध्ययन एवं स्वाध्यायं आवश्यक माना गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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