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व्यवहार में क्रोध, मान, माया, एवं लोभ रूपी कषायों के रूप में प्रकट होता है । जो व्यक्ति क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा आदि कुत्सित चित्तवृत्तियों को नियन्त्रित करे, वही सच्ची शिक्षा है।
_इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य मात्र वस्तु के विषय में जानकारी प्राप्त कराना ही नहीं वरन् व्यक्ति को वासनाओं एवं विकारों से मुक्त कराना है। ऋषिभाषितसूत्र के अनुसार वही विद्या, विद्या है और वही विद्या समस्त विद्याओं में उत्तम है, जिसकी साधना करने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। विद्या दुःख मोचनी है एवं आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली है। शिक्षा का सम्बन्ध केवल साक्षर होने से नहीं है। अक्षरों का हाथ पकड़कर चलना यात्रा की एक शुरूआत है पर अक्षरों के माध्यम से जो कुछ कहा जाता है वह जीवन में नहीं उतरता है तो शिक्षा की सार्थकता के आगे प्रश्नचिन्ह लग जाता है। दशवैकालिकसूत्र में शिक्षा के चार प्रयोजन प्रतिपादित किये हैं -
(१) श्रुतज्ञान (आगमज्ञान) की प्राप्ति के लिये; (२) चित्त की एकाग्रता के लिये; (३) धर्म में स्थिरता के लिये; और (४) स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी धर्ममार्ग में स्थिर करने के लिये।
. पूर्वोक्त विवेचन के अतिरिक्त जैन शिक्षापद्धति के निम्न उद्देश्य भी पाये जाते हैं.. (१) व्यक्ति में अनन्तचतुष्टय के अनावरण की जो क्षमता है उसे बढ़ाते चले जाना और पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेना ही शिक्षा का मूल प्रयोजन है। जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में इसके विनय आदि साधनों का व्यवस्थितरूप से निरूपण किया गया है। जिसकी विस्तृत चर्चा हम विनय के प्रकरण में करेंगे।
। (२) जैनदर्शन में शिक्षा का दूसरा उद्देश्य सम्यग्दृष्टि बनना है। जैनदर्शन की यह मान्यता है कि व्यक्ति की जीवनदृष्टि सम्यक् हुए बिना उसका ज्ञान और आचरण सम्यक नहीं हो सकता। इसके लिए तीव्रतम कषायों (वासनाओं) का क्षयोपशम करना होता है। अतिक्रोधी, अहंकारी, कपटी या लोभी व्यक्ति की
६ उत्तराध्ययनसूत्र ३२/१०२ से १०६ । ७ ऋषिभाषित - १७/१एवं २। दशवकालिक - ६/४1
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