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'आहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमेतद् पशुभि नराणाम्।
ज्ञानं हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाः पंशुभिः समानाः ।।''
पुनश्च यदि सुख सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करना शिक्षा का लक्ष्य हो तो यह भी मिथ्या है क्योंकि दुःख एवं पीड़ा मात्र दैहिक ही नहीं है; वे मानसिक भी हैं, वरन् स्वार्थलिप्सा, भोगेच्छा एवं तृष्णाजन्य मानसिक दुःख अधिक पीडाजनक हैं। यदि भौतिक सुख सुविधा के विस्तार से ही सुख होता तो आज अतिसुविधा सम्पन्न अमेरिका जैसे देश के व्यक्ति संत्रास एवं तनावग्रस्त नहीं होते। इस प्रकार हम देखते. हैं कि शिक्षा का उद्देश्य इनसे परे है और वह है मानवीय जीवन मूल्यों का विकास। भारतीय संस्कृति में शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या विमुक्तये' रहा है अर्थात् सच्ची शिक्षा वही है जो विमुक्ति की ओर ले जाये।
प्रकारान्तर से जैनसंस्कृति के प्रमुख ग्रन्थ 'ऋषिभाषित' में 'सा विज्जा जा दुक्खमोयणी' कहा गया है अर्थात् विद्या वही है जो दुःखों से मुक्ति प्रदान करे। प्रश्न उठता है कि विमुक्ति का तात्पर्य क्या है ? इसका उत्तर हमें 'दुक्खमोयणी' शब्द में उपलब्ध हो जाता है कि दुःख से मुक्ति पाना। दुःख का मूल है राग-द्वेष, अहंकार, आसक्ति और तृष्णा। इनसे मुक्ति पाने पर ही व्यक्ति तनाव एवं संत्रास से मुक्त हो सकता है।
इसी परिप्रेक्ष्य में उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि श्रुत (ज्ञान) की आराधना करने से जीव के अज्ञान, मोह एवं रागद्वेष का नाश होता है और वह संक्लेश को प्राप्त नहीं होता है। यहां यह भी स्पष्ट होता है कि ज्ञान साधना का प्रयोजन अज्ञान के साथ-साथ मोह से भी मुक्त होना है। जैनदृष्टि अज्ञान एवं मोह में भिन्नता प्रदर्शित करती है। जैनदर्शन में अज्ञान तीन प्रकार का माना गया है - (१) अज्ञान (२) संशय और (३) विपर्यय।' वस्तुतः ज्ञान का अभाव ही अज्ञान नहीं है; अपितु विपरीत ज्ञान भी अज्ञान है। जैनदृष्टि से सही शिक्षा सम्यकदर्शन की उपलब्धि है।
भौह अनात्म विषयों में आत्मबुद्धि है' अर्थात् जो अपना नहीं है उसे अपना मानना यही 'मोह' है। यह राग एवं आसक्ति को जन्म देता है तथा मानव
१ सागर जैन विद्या भारती भाग १, पृष्ठ १६३ । २ ऋषिभाषित - १७/२। ३ उत्तराध्ययनसूत्र २६/२५ । ४ प्रमाणनयतत्त्वालोक - १/८ ५ व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर।
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