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________________ ७. सचित्त आहारवर्जन प्रतिमा : सचित्त आहार का पूर्णतया त्याग करना श्रावक की सातवीं प्रतिमा है। इस प्रतिमा को स्वीकार करने पर साधक अचित्त जल (गर्म किया हुआ जल) तथा अचित्त आहार को ही ग्रहण करता है । ४५६ इस प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधक सभी प्रकार के बीजयुक्त / सचित्त आहार का त्याग कर देता है। फिर भी पारिवारिक, सामाजिक आदि उत्तरदायित्व से विमुख नहीं होने कारण आरम्भ का त्याग नहीं करता है अर्थात् दूसरों को आहार आदि बना कर दे सकता है । पुनश्च इसमें गृहस्थ साधक स्वयं भी सचित्त पदार्थों को अचित्त कर खा सकता है। ८. आरम्भत्याग प्रतिमा : इस प्रतिमा के अन्तर्गत साधक आरम्भ का पूर्णरूपेण त्याग कर देता है । साधना की इस भूमिका में आने से पूर्व वह अपने पारिवारिक आदि उत्तरदायित्वों को उत्तराधिकारी को सुपुर्द कर देता है और स्वयं निवृत्त होकर अपना समय धर्म कार्य में लगाता है। ६. प्रेष्यारम्भ वर्जन प्रतिमा : प्रेष्य अर्थात् सेवक वर्ग आदि के द्वारा कार्य करवाने का त्याग करना प्रेष्यारम्भ प्रतिमा है। आठवीं प्रतिमा में साधक स्वयं आरंभ आदि कार्यों से विरत हो जाता है पर वह अपने उत्तराधिकारी आदि को मार्गदर्शन दे सकता है अर्थात् उनके • द्वारा कृषि आदि करवा सकता है। उसमें कृत का निषेध होता है, कारित का नहीं किंतु इस नवमीं प्रतिमा में गृहस्थ साधक अन्य किसी के द्वारा भी आरम्भ नहीं करवाता है। दिगम्बर परम्परा में इस प्रतिमा को परिग्रह त्याग प्रतिमा कहा गया है। इसका स्वरूप स्पष्ट करते हुये रत्नकरण्डकश्रावकाचार में कहा गया है कि जो धन धान्यादि दस प्रकार के परिग्रह एवं मायाचार का त्याग कर परम संतोष को धारण करता है वह परिग्रहविरत श्रावक कहलाता है | 72 ७२. रत्नकरण्डक श्रावकाचार १४५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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