________________
SEO
१०. उद्दिष्टभक्तवर्जन प्रतिमा :
उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार इस प्रतिमा में गृहस्थ अपने निमित्त से बने भोजन का भी त्याग कर देता है । सिर उस्तरे से मुडांता है केवल शिखा रखता है।
दिगम्बर परम्परा से इसे अनुमति त्याग प्रतिमा भी कहा गया है अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरूप निरूपित करते हुये 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार' तथा 'सागारधर्मामृत' में लिखा है: “जो आरम्भ, कृषि तथा लौकिक कार्यों में रूचि नहीं रखता, साथ ही उनका अनुमोदन भी नहीं करता है, वह अनुमति त्यागी श्रावक है।"
११. श्रमणभूत प्रतिमा :
जैसा कि इस प्रतिमा के नाम से ही स्पष्ट है यहां भूत शब्द सदृश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः इस प्रतिमा को धारण करने वाला गृहस्थ श्रमण के सदृश बन जाता है।
उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार श्रमणभूत प्रतिमा धारी श्रावक सारे अनुष्ठान श्रमण के समान ही करता है। जैसे लोंच करवाना, साधु के समान संयमोपकरण रखना, भिक्षा द्वारा क्षुधा निवृत्ति करना, आदि। यहां विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि श्रमणभूत प्रतिमाधारी श्रावक श्रमणवत् जीवन चर्या का पालन करता है, फिर भी उसकी चर्या में श्रमण से निम्न आंशिक भिन्नता होती है, जैसे श्रमण लोच करता है, प्रतिमाधारी श्रावक शक्ति न होने पर उस्तरे से केश उतार सकता है।
इस प्रकार ये ग्यारह प्रतिमाएं गृहस्थ साधक के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की सीढ़ियां हैं जिन्हें व्यक्ति क्रमशः यथाशक्ति ग्रहण करता चला जाता है और वह साधु जीवन के समीप पहुंच जाता है।
- (शान्त्याचाय)।
७३. उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०१७ । ७४. (क) रत्नकरण्डकश्रावकाचार - १४६ ।
(ख) सागारधर्मामृत - ७/३ । ७५. उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र. ३०३०
- (नेमिचन्द्राचार्य)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org