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11.४ श्रावक की ग्यारह-प्रतिमाएं
जैन परम्परा में गृहस्थ साधक के आध्यात्मिक विकास के लिये धर्म साधना की एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया निर्धारित की गई है। गृहस्थ श्रावक अपने आध्यात्मिक विकास के लिये सर्वप्रथम मार्गानुसारी आदि गुणों को, तत्पश्चात् बारह व्रतों को ग्रहण करता है, इसके बाद वह क्रमशः. ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करता हुआ आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होता है।
उत्तराध्ययनसूत्र के इकतीसवें अध्ययन में उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। इस के टीकाकार गणिवर भावविजयजी ने ग्यारह प्रतिमाओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है, जो निम्नानुसार है
१. दर्शन प्रतिमा :
उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार प्रशमादि गुणों को धारण कर, दुराग्रहों का सर्वथा त्याग कर, निर्दोष सम्यक्त्व को स्वीकार करना दर्शन प्रतिमा है। उपासकदशांगसूत्र की टीका में भी निर्दोष अर्थात् शंका, आकांक्षा आदि दोषों से रहित सम्यग् दर्शन की साधना को दर्शन प्रतिमा कहा गया है।
२. व्रत प्रतिमा : . उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार निरतिचार अणुव्रतों का पालन व्रत प्रतिमा है। पंचाशकप्रकरण में भी पांच अणुव्रतों के निरतिचार पालन को व्रत प्रतिमा कहा गया है।
- (गणिवरभावविजय जी)। - (गणिवरभावविजय जी)।
६४ उत्तराध्ययनसूत्र - ३१/११ । ६५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०१७ ६६. उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०१७ ६७. उपासकदशांग टीका - पत्र १५ । ६८. उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०१७ ६६. पंचाशक प्रकरण - १० ।
- (शान्त्याचार्य) ।
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