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में श्रमण, श्रमणी श्रावक एवं श्राविका इन चारों को अतिथि कहा गया है।
अपने अधिकार की वस्तुओं में से अतिथि के लिये समुचित्त विभाग करना उसे अपेक्षित वस्तु का दान करना अतिथिसंविभाग व्रत है
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वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्ति पूजक संप्रदाय में श्रावक प्रथम दिन पौषध करता है, पश्चात् दूसरे दिन एकासना करके अपने घर साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका को आमंत्रित कर उन्हें आहार आदि प्रदान करता है, यह अतिथि - संविभाग व्रत माना जाता है। योग्य अवसर पर श्रावक को इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए ।
अतिथिसंविभाग व्रत व्यक्ति को इस बात की प्रेरणा देता है कि गृहस्थ के कर्तव्यों की सीमा रेखा सिर्फ परिवार एवं प्रियजन तक ही सीमित नहीं है वरन् निःस्वार्थ भाव से समाज सेवा करना भी उसका कर्तव्य है।
अतिथिसंविभाग के अतिचार (दोष) :
(१) सचित्त निक्षेपण : दान न देने की भावना से साधु के दिये जाने योग्य प्रासुक आहार पर सचित्त वस्तुओं का निक्षेप करना, ताकि साधु उस आहार को ग्रहण न कर सके।
(२) सचित्तपिधान : अदान बुद्धि से सचित्त (सजीव) वस्तु से अचित्त (निर्जीव) वस्तु को ढक देना ।
(३) कालातिक्रम: श्रमण की भिक्षा का समय व्यतीत हो जाने पर भोजन तैयार
करना ।
(४) परव्यपदेश : देने की इच्छा नहीं होने पर अपनी वस्तु को दूसरों की बताना । (५) मत्सरिता : ईर्ष्या अथवा अहंकार वश दान देना ।
६३. देखिये - अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ७, पृष्ठ ८१२ ।
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