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पौषध शब्द के व्युत्पत्ति परक अर्थ के अनुसार अपने आपके निकट रहना अर्थात् पर-पदार्थों (विषय भोगों) से अलग हटकर स्वस्वरूप में स्थित रहना पौषध है।
_इस व्रत के ग्रहण करने पर गृहस्थ साधक, साधु की तरह अपना आचरण करता है। इस प्रकार यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह अल्पकाल के लिए मुनिचर्या का पालन है।
पौषधोपवास के पांच अतिचार :
(१) अप्रतिलेखित दुष्पतिलेखित संस्तारक : सम्यक् प्रकार से देखे बिना ही सोने बैठने के साधनों एवं स्थान का उपयोग करना।
(२) अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक : आसन आदि का प्रमार्जन नहीं करना अथवा असावधानी से प्रमार्जन करना।
(३) अप्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रसावण भूमि : सम्यक् प्रकार से देखे बिना शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना।
(४) अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्त्रवण भूमि : अप्रमार्जित शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। " (५) पौषध सम्यगननुपालनता : पौषध के नियमों का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करना अर्थात् पौषध में निन्दा विकथा, प्रमाद आदि करना।
____१२. अतिथिसंविभाग जिसके आने की तिथि (समय) निश्चित न हो उसे अतिथि कहा जाता है। सामान्यतः अतिथि का अर्थ साधु किया जाता है। किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति
६२. देखिए - जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृष्ठ २६७ । .
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