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(४) उपानह : जूते, चप्पल, मौजे आदि की मर्यादा करना ।
(५) कुसुम : फूल, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की सीमा का नियम करना ।
(६) वस्त्र : वस्त्र एवं आभूषण को सीमित करना।
(७) वाहन : स्कूटर, कार, बस, ट्रेन आदि मर्यादा को निश्चित करना ।
(८) शयन : पंलग, खाट, गादी, चटाई आदि बिछाने की वस्तुओं की मर्यादा रखना ।
(६) विलेपन : केसर, चंदन, तैल आदि लेप किये जाने वाले पदार्थों को सीमित
करना ।
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(१०) ब्रह्मचर्य : ब्रह्मचर्य की मर्यादा का निर्धारण करना ।
(११) दिशा : दिशाओं में गमनागमन की प्रवृत्तियों को मर्यादित करना ।
( १२ ) स्नान : स्नान तथा वस्त्र प्रक्षालन की मर्यादा रखना।
(१३) तम्बोल : पान, सुपारी, इलायची आदि का संख्या या वजन से प्रमाण करना । (१४) भक्त: अशन, पान, खादिम, स्वादिम– इन चारों प्रकार के आहार की सीमा निश्चित करना।
इस प्रकार इन चौदह नियमों के द्वारा देशावकासिक व्रत का पालन किया जाता है। श्रावक रात को पुनः इसका चिंतन करता है कि ली हुई मर्यादा का पालन किस प्रकार किया गया है। कहीं भूल से मर्यादित वस्तु से अधिक उपयोग में ली हो तो उसके लिये प्रायश्चित्त करता है।
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उपासकदशांगसूत्र, योगशास्त्र, धर्मबिन्दुप्रकरण, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, सागारधर्मामृत, कार्तिकयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में देशावकासिक व्रत की गणना शिक्षाव्रत के अन्तर्गत की है। तत्त्वार्थसूत्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रन्थों . में इस व्रत को गुणव्रत के अंतर्गत स्वीकार किया गया हैं । देशावकासिक व्रत को चाहे गुणव्रत माना जाय या शिक्षाव्रत इसके स्वरूप में कहीं कोई अंतर नहीं पड़ता है। हां इतना अवश्य है कि 'सागारधर्मामृत' में जिन व्रतों से मुनि जीवन की शिक्षा प्राप्त होती है उन्हें शिक्षाव्रत कहा जाता है। उसके अनुसार देशावकांसिक व्रत की गणना शिक्षाव्रत में करना अधिक उचित प्रतीत होता है । पुनश्च दिक्परिमाणव्रत, उपभोग- परिभोग- परिमाणव्रत तथा अनर्थदण्डविरमणव्रत आजीवन के लिये ग्रहण
६१. सागारधर्मामृत - ५/२४ ।
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